- SHARE
-
जयपुर। शास्त्रों में कहां गया है। मां बाप के कर्ज को बच्चें कभी नही उतार सकते। वे इनके आजीवन ऋणी रहते है। मगर यह बात हुई शास्त्रों की। सच यह है की समाज में ऐसे लोगों की कमी नही है जो इस सच से अपनी आंखें मूंदे हुए है। जयपुर के इन आश्रमों में इस तरह के सच्चे वाकिये भरे पड़े है। जिन पर बुजुर्गो को रोना आता है। हालत इतनी खराब है की बच्चों को मां बाप की चिंता नहीं है। उन्हे उस खजाने को फिक्र है,जिसे उन्होंने जिंदगी भर में कमाया। इसके रीत जाने पर उन्हें यही बुजुर्ग बेगाने समझने लगते है।
जयपुर के वृद्ध आश्रमों में एक राम भवन में अनेक बुजुर्गो से बात हुई थी, जो अपनी औलाद की यातनाएं सुनाते वक्त रो पड़ते है। नफरत भरी इन दस्तानों को वे खुलकर नहीं बताते। उनका आज भी यह मानना है कि इन बच्चों को अपनी भूल पर अफसोस होगा और वे उन्हें अपने साथ घर ले जायेंगे। पोता पोतियों के साथ वे खेल सकेंगे। गार्डन में घुमाने और टॉफी की जिद पूरी करने का सुख भोगने देंगे।वृद्ध लोगों की सेवा करने वाले ये संस्थान सरकारी नहीं है। जयपुर के दान दाताओं की बदौलत यह सेवा कई सालों से कर रहे है। करीब दो सौ लोगों के क्षमता वाले हाल में, बूढ़ी टसकती सासें हाउस फुल है।
एक बात बड़ी अखरती है। सीनियर सिटीजन के इस आश्रम में किसी भी औलाद को अपनी इन करतूतों पर जरा भी अफसोस नहीं है। उनके अपने बुजुर्ग जिंदा भी है कि नही। इस बात की जानकारी के लिए एक बार भी आश्रम नहीं आए। यह तक भी नहीं पूछा की पापा जी मम्मी जी आप की तबियत कैसी है। औलाद की झलक केलिए छटपटाते इन बुजुर्गो की सांस रुकने के बाद भी इन दुष्टों को अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं होता। बहुत सी बार संस्थाओं को ही अंतिम संस्कार की रस्मों को निभाना पड़ जाता है। अस्थियों का विसर्जन नहीं हो पाता। वे भी महीनों तक इसका इंतजार रहता है।
राम आश्रम साफ सुथरा है। क्या मजाल की कोई तिनका फर्श पर दिखाई दे जाय। हर चारपाई के नीचे प्लास्टिक का तसला रखा है। निकट ही स्टूल पर पानी का जग रखा हुआ है। जग में कोई भी अनवांटेड चीज ना गिर जाय। इससे बचने को स्टिल की छोटी सी प्लेट ढकी हुई है। बूढ़ी मां सुलोचना बताती है की आश्रम में नौकर नाम का कोई भी सेवक नहीं है। किसी भी बुजुर्ग को कोई भी परेशानी होने पर वे उनकी मदद के लिए तत्पर रहते है। दोपहर के समय हिंदू ग्रंथो का पाठ होता है।भजन कीर्तन का कोई समय फिक्स नहीं है। साधु संतों के आने पर वहां समारोह का सा माहोल हो जाता है।
आश्रम की रसोई कोई दस बाई दस साइज की है। इसकी सतह पर गैस का चूल्हा रखा है। निकट ही कई आल मारियो में आटा, मसाला, और रसोई के आई टामो को सजा कर रखा गया है। किया मजाल की आटे या तरकारी का अंश पड़ा दिख जाय। इसी तरह बरतनो को सजा कर रखा जाता है। आश्रम के तमाम कार्यों केलिए जिम्मेदारियां फिक्स रहती है। किसी को कहने सुनने की जरूरत नही होती।आश्रम की दीवारों को साफ सुथरा रखा गया है। कुछ जगह पर धार्मिक चित्र लगाए गए है। हमारे नजदीक खड़ी वृद्ध महिला बंगाली है। हिंदी ना तो बोलना जानती है। और नही बात कर पाती है। मगर इशारों में अपने मन की बात कुशलता से व्यक्त कर देती।है। वृद्धा बताती है की उसकी आंखों का ऑपरेशन होना है। जाने कब वहां शिविर लगेगा। यह बता कर खिल खिला कर हंस पड़ती है।
बूढ़े जिस्म वालों के बदन की चमड़ी बे शक झुर्री दार हो। मगर उसकी खुशबू मुग्ध करती है। मोटी मोटी आंखों वाली एक महिला अपनी उम्र अस्सी साल बता रही थी। भीड़ भाड़ के माहोल में ना जाने किसे, बैचेनी से खोज रही है। इनसे भी बातचीत का मौका मिला। बड़ी स्टाइल से अपना इंटरव्यू देती है। किशोरी बूढ़ी है,मगर उसके बदन में गजब की फुर्ती है। रसोई की इंचार्ज है। चाय कालेवे का टाइम फिक्स है। भोजन में आइटम तरह तरह के बनते है। फिर किसी की खास डिमांड हर हाल में पूरा करती है। कभी खीर तो कभी हलवे की डिमांड तो अक्सर होती है।शांति देवी बताती था की वह दो बच्चों की मां है। इनमें एक की मौत हो चुकी है। दूसरा बेटा लुगाई का गुलाम है। बीबी ने कह दिया कि तेरी मां खराब है। बोझ है।
इनकी सेवा करना हमारे बस का नहीं। बस मनाली उसकी बात। अपनी मां से तो पूछ लिया होता। नौकरों के सामने ही जलील कर दिया। धक्का मुक्की तो आए दिन कर देती है। हर दिन एक ही जिद। यह डोकरी नहीं रहेगी मेरे साथ। फिर एक दिन जरा गर्मा गर्मी ज्यादा होगई थी। पहले मार पीट की फिर आधा अधूरा समान, चादर की पोटली में बांध कर कार की डिग्गी में लोड करवा दिया। शोर गुल सुन कर पड़ोसी पांडे जी दौड़े आए। मगर माहोल गर्म था। उन्हे भी बड़ी भली बुरी सुनने को मिली। कार स्टार्ट की ओर ड्राइविंग सीट वाली खिड़की से पूरा मुंह निकला। वह बोला,पांडे जी ये हमारा प्राईवेट मामला है। आप चुप ही रहे। प्रॉबलम चाहे जो हो। थैंक्स पांडे जी...!
शांति देवी आश्रम में नई थी। दो साल से रह रही थी। बेटे बहु का जिक्र जब होता था यहीं कहती थी... यह मेरे ही पिछले जन्म के कर्म है। जिसका नतीजा वह झेल रही है। उसका परिवार अब आश्रम ही बन कर रह गया है।इन्ही में नए रिश्ते बना लिए है। जब भी कभी मौका मिलता अपनी बहु बेटों और पोता पोती को दिल से आशीर्वाद देती है आखिर मां तो मां ही होती है। जो अपने बच्चों की करतूतों का कभी बुरा नही मानती है। शांति देवी के पास वाली कुर्सी पर जीवन राम बैठे है। सफेद रंग के धोती कुर्ता पहने, हमारी बात चीत गौर से सुन रहे थे। मौका पाकर वे भी बतियाने लगे। उनके चार बेटियां है। सभी की शादी कर दी थी। बेटा बेरोजगार है। बाप को रोटी खिलाने को उसके पास पैसा नहीं है।
कभी कदास आश्रम आया करता है। बस इसी में वह खुश है। सीता देवी की उम्र साठ साल बताई जाती है। वृद्धा के परिवार में कोई भी नही है। जो थे मर खप गए । आश्रम में ही एक लंगड़ी लड़की भी रहती है। पति ने छोड़ रखा है। इसी को बेटी बनाया हुआ है। अस्सी साल के सलीग राम जी को समधी जी कह कर संबोधित करती है। आश्रम के माहोल में वह खुश है। कुछ और वृद्ध जन से बात हुई थी। सभी का एक ही दर्द है। एक दूसरे की पीड़ा झेली जा रही है।