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हर साल 10 अप्रैल को दुनियाभर में हैनिमैन जयंती मनाई जाती है। यह दिन होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति के जनक डॉ. क्रिश्चियन फेड्रिक सैमुअल हैनिमैन को समर्पित होता है। उनका जन्म 10 अप्रैल 1755 को जर्मनी में एक बेहद गरीब परिवार में हुआ था। जीवन की शुरुआत कठिनाइयों से भरी रही—वो सड़कों की लाइट के नीचे पढ़ाई करते थे, लेकिन असाधारण बुद्धि के कारण उन्होंने कम उम्र में ही एमडी की पढ़ाई पूरी कर ली।
एलोपैथी से असंतुष्टि बनी प्रेरणा
हालांकि वे एलोपैथिक डॉक्टर बने, लेकिन पारंपरिक चिकित्सा पद्धति से संतुष्ट नहीं थे। उन्हें एहसास हुआ कि एलोपैथी सिर्फ लक्षणों को दबाती है, रोग को जड़ से नहीं मिटाती। इसी सोच के दौरान उन्होंने कुनैन (Cinchona bark) के बारे में पढ़ा, जिससे मलेरिया का इलाज होता था, लेकिन बीमारी फिर भी लौट आती थी।
उन्होंने एक प्रयोग किया—कुनैन की थोड़ी-थोड़ी मात्रा को बार-बार देकर देखा। नतीजे उत्साहजनक रहे। इसी प्रयोग के आधार पर 1790 में होम्योपैथी की नींव रखी गई। शुरुआत में इस सिद्धांत का भारी विरोध हुआ, लेकिन धीरे-धीरे यह चिकित्सा पद्धति दुनियाभर में फैलने लगी।
होम्योपैथी: लक्षणों के समग्र अध्ययन पर आधारित
होम्योपैथी की सबसे खास बात यह है कि यह व्यक्ति के सम्पूर्ण लक्षणों को आधार बनाकर उपचार करती है। डॉक्टर को मरीज की मानसिक, शारीरिक, सामाजिक और भावनात्मक स्थिति को समझकर एक ही दवा चुननी होती है। यही कारण है कि आज भी होम्योपैथिक डॉक्टर इसी सिद्धांत पर काम कर रहे हैं।
भारत में होम्योपैथी की शुरुआत और विकास
भारत में होम्योपैथी की उपस्थिति करीब 200 वर्षों से है, लेकिन शुरुआती दौर में इसकी शिक्षा के लिए कोई व्यवस्थित व्यवस्था नहीं थी। जयपुर के डॉ. गिरीन्द्र पाल साहब ने इस दिशा में कदम बढ़ाया। उन्होंने 1965 में एम.आई. रोड स्थित इंडियन कॉफी हाउस के ऊपर पहले होम्योपैथिक कॉलेज की स्थापना की।
1967 में यह कॉलेज लखनऊ होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज से संबद्ध हो गया। इसी संस्थान से लेखक ने भी बीएमएस और एमडी की पढ़ाई पूरी की। आज राजस्थान में 10 होम्योपैथिक कॉलेज संचालित हैं और हजारों छात्र-छात्राएं इससे लाभान्वित हो रहे हैं।
विश्व की पहली होम्योपैथिक यूनिवर्सिटी
जो कॉलेज एक छोटे से कमरे में शुरू हुआ था, वह आज सायपुरा सांगानेर में विशाल विश्वविद्यालय का रूप ले चुका है और विश्व की पहली होम्योपैथिक यूनिवर्सिटी होने का गौरव प्राप्त कर चुका है। लेखक खुद इस यूनिवर्सिटी के शैक्षणिक सदस्य के रूप में 10 वर्षों तक कार्यरत रहे हैं और कई कोर्सेज के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभा चुके हैं।
शोध की आवश्यकता और नई दिशा
आज जब दुनियाभर से छात्र होम्योपैथी पढ़ने भारत आते हैं, तब हमें यह सोचना होगा कि क्या हम होम्योपैथी में नवाचार कर पा रहे हैं? क्या हमने हैनिमैन के दृष्टिकोण को और आगे बढ़ाया है?
लेखक खुद पिछले 55 वर्षों से होम्योपैथी में शोध कार्य में लगे हैं। उन्होंने भारत में फैली कई महामारियों जैसे आई फ्लू, चिकनगुनिया, मलेरिया, स्वाइन फ्लू और कोरोना के लिए रोग प्रतिरोधक दवाएं विकसित कीं और हजारों लोगों को निःशुल्क वितरित कीं। इसके लिए उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुए।
बहु-दवा चिकित्सा: एक नई खोज
लेखक ने पारंपरिक एकल दवा के स्थान पर "बहु-दवा चिकित्सा" की तकनीक अपनाई। इसका परिणाम यह हुआ कि लीवर कैंसर, किडनी फेल्योर (बिना डायलिसिस), बाल झड़ना, ऑक्सीजन की कमी जैसी समस्याओं में भी उन्हें सफलता मिली है। आज देश-विदेश से असाध्य रोगों के मरीज उनके पास इलाज के लिए आ रहे हैं।
अब समय आ गया है कि हम सभी होम्योपैथिक चिकित्सक मिलकर हैनिमैन के अधूरे कार्य को आगे बढ़ाएं। शोध को प्राथमिकता दें और इस चिकित्सा पद्धति को एक नए स्वरूप में दुनिया के सामने प्रस्तुत करें।
जय हैनिमैन! जय होम्योपैथी!