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सुप्रीम कोर्ट ने बाल विवाह निषेध अधिनियम (Prohibition of Child Marriage Act) को पर्सनल लॉ से ऊपर रखते हुए एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा कि यह कानून हर वर्ग और समुदाय के लिए समान रूप से लागू होगा। इस फैसले का उद्देश्य नाबालिगों के अधिकारों की रक्षा करना और बाल विवाह की प्रथा को समाप्त करना है।
नाबालिगों के अधिकार और स्वतंत्रता की रक्षा
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि माता-पिता नाबालिग बच्चों की शादी के लिए जीवनसाथी का चयन नहीं कर सकते, भले ही शादी बालिग होने के बाद हो। सगाई जैसी परंपराएं भी नाबालिगों की स्वतंत्रता का उल्लंघन हैं। यह फैसला बाल विवाह के खिलाफ भारत में एक बड़ा बदलाव लाने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है।
समाज के लिए जागरूकता अभियान की आवश्यकता
कोर्ट ने बाल विवाह रोकने के लिए दंडात्मक उपायों के अलावा जागरूकता बढ़ाने पर जोर दिया। समाज की जरूरतों के अनुसार रणनीतियां बनाकर विभिन्न समुदायों के लिए संवाद कार्यक्रम और जागरूकता अभियान चलाने की सिफारिश की गई।
कानून के प्रभावी क्रियान्वयन पर जोर
याचिकाकर्ता संगठन "सोसाइटी फॉर इनलाइटनमेंट एंड वॉलंटरी एक्शन" ने कोर्ट में आरोप लगाया कि बाल विवाह निषेध अधिनियम का सही तरीके से पालन नहीं हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब तलब करते हुए राज्यों से चर्चा कर यह सुनिश्चित करने को कहा कि बाल विवाह पर रोक लगाने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं।
फैसले के प्रमुख बिंदु
- बाल विवाह निषेध अधिनियम पर्सनल लॉ से ऊपर है।
- माता-पिता नाबालिगों की शादी के लिए जीवनसाथी का चयन नहीं कर सकते।
- समाज में जागरूकता बढ़ाने के लिए रणनीतियों और अभियानों की आवश्यकता है।
- केंद्र और राज्यों से बाल विवाह रोकने के लिए ठोस कार्य योजना बनाने का निर्देश।