उदयपुर। राजस्थान में चैत्र माह में मनाया जाने वाला धर्म एवं संस्कृति का प्रतिरुप गणगौर पर्व न केवल प्राणी मात्र बल्कि पेड-पौधों में भी नव संचेतना की लहर उडेल देता हैं। चैत्र माह के पहले दिन से अनूठे अहमियत वाले रंगो का त्यौहार होली को इसका जुडवा त्यौहार भी कहा जाता है जो शुक्ल पक्ष की पंचमी तक जारी रहता हैं।
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यह धार्मिक उत्सव बसंत ऋतु का आकर्षक पर्व है जो सर्दी की समाप्ति के बाद खुशनुमा मौसम में पेड-पौधों में नई पत्तियां और कोंपल फूटने लगती है तथा पशु एवं पक्षी भी अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय नजर आते हैं। वर्तमान स्वरुप में इस त्यौहार को कब से मनाया जाने लगा कहना मुश्किल है परन्तु अब यह एक परम्परा, धर्म एवं लोकरूचि का पर्व बन चुका हैं। होली के तुरंत बाद यह पर्व शुरू हो जाता है। होली की बची राख में महिलाएं गेंहू अथवा जौ के बीज बोती है और उसे रोज सींचती हैं। बीज से जब पौधा प्रस्फुटित होता है तो उसे सींचते हुये महिलाएं गणगौर के गीत गाती हैं।
होली के बाद कन्याएं समूह में बाग से पुष्प, दूब और छोटे बर्तन में जल लाती हैं। वे प्रायः चार या सात की पंक्ति में ऐसा करती हैं। बाग के कुएं के एक साफ कोने पर कुंकु और अक्षत सजाती हैं फिर गौर ईसर की प्रशंसा में गीत गाते हुए लौट जाती हैं। विवाहित महिलाएं पुष्प और दूब लेने जाती हैं, मालिन उन्हें लाकर देती हैं।
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छह दिनों तक चलने वाले इस क्रम के बाद सातवें दिन कन्याएं तालाब के किनारे की या कुम्हार की मिट्टी लाती हैं और उससे गौर, ईसर, कान्हीराम, रोवण तथा मालिन की प्रतिमाएं बनाती हैं। किवंदती है कि ईसर ब्रह्माजी के पुत्र थे। गौरी ईसर की पत्नी, कान्हीराम ईसर का छोटा भाई तथा रोवण छोटी बहिन हैं। मालिन सेविका के रुप में मानी जाती हैं।-एजेंसी
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