क्या आप जानते हैं कौन थे दिति, अदिति और कश्यप

Samachar Jagat | Saturday, 03 Dec 2016 05:58:01 PM
Diti Aditi and Kashyap story

क्या आप जानते हैं दिति, अदिति और कश्यप कौन थे, क्यों दी थी कश्यप ऋषि ने वरूण देव को गाय, इस गाय में ऐसा क्या था कि कश्यप ऋषि इसे वरूण देव को वापस लौटाना ही नहीं चाहते थे। आइए आपको विस्तार से बताते हैं इस कथा के बारे में
पूर्वजन्म में देवकी द्वारा किए गए कर्म ही देवकी के दुःखों का कारणः- दक्ष प्रजापति की दिति और अदिति नाम की दो सुन्दर कन्याओं का विवाह कश्यप मुनि के साथ हुआ। अदिति के अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए। भगवान विष्णु ने इन्द्र का पक्ष लेकर दिति के दोनों पुत्रों हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष को मार डाला।

क्यों किया सूर्यदेव ने अपने ही पुत्र शनि का त्याग

तब दिति ने सोचा मैं कोई ऐसा उपाय करूंगी जिससे मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो इन्द्र को मार डाले। भगवान की कैसी माया है, लोग अपने को और अपने आत्मीय को तो बचाना चाहते हैं, लेकिन दूसरों से द्रोह करते हैं। यह द्रोह नरक में ले जाने का रास्ता है। तब इन्द्र जैसे ओजस्वी पुत्र के लिए दिति के मन में इच्छा जाग्रत हुई। अतः वह अपने पति कश्यपजी को प्रसन्न करने के लिए उनकी सेवा करने लगी। दिति ने अपने मन का संयम कर प्रेम, विवेक, मधुर भाषण, मुस्कान व चितवन से कश्यपजी के मन को जीत लिया। वे दिति की सेवाओं से मुग्ध होकर जड़ हो गये।

उन्होंने दिति से कहा अब तुम जो चाहो हम करने को तैयार हैं।’ दिति ने देखा कि ये वचनबद्ध हो गये हैं, तो उसने कश्यपजी से प्रार्थना की कि मुझे बलशाली एवं परम शक्तिसम्पन्न पुत्र देने की कृपा करें, जो इन्द्र को मार दे। यह सुनकर कश्यपजी को बहुत दुःख हुआ क्योंकि इन्द्र अदिति के गर्भ से कश्यपजी के बेटे हैं। उन्होंने सोचा कि माया ने मुझे पकड़ लिया। संसार में लोग स्वार्थ के लिए पति-पुत्रादि का भी नाश कर देते हैं। अब क्या हो? मैंने जो वचन दिया है, न तो वह व्यर्थ होना चाहिए और न इन्द्र का अनिष्ट होना चाहिए।

इस प्रकार सोच-विचार करके कश्यप मुनि ने दिति को एक वर्ष का ‘पुंसवन व्रत’ धारण करने के लिए कहा। कश्यपजी ने कहा कि यदि तुम एक वर्ष तक व्रत का पालन करोगी तो तुम्हारे जो बेटा होगा वह इन्द्र को मारने वाला होगा लेकिन यदि व्रत में कोई त्रुटि हो जायेगी तो वह इन्द्र का मित्र हो जाएगा। कश्यप मुनि ने व्रत के लिए दिति को इन नियमों का पालन करने के लिए कहा, इस व्रत में किसी भी प्राणी को मन, वचन या कर्म के द्वारा सताएं नहीं। किसी को शाप या गाली न दे, झूठ न बोले, शरीर के नख व बाल न काटे, किसी भी अशुभ वस्तु का स्पर्श न करें, क्रोध न करे, बिना धुला वस्त्र न पहने और किसी की पहनी हुई माला न पहने।

जूठा न खाएं, मांसयुक्त अन्न का भोजन न करें, शूद्र का और रजस्वला स्त्री का अन्न भी न खाएं, जूठे मुंह, संध्या के समय, बाल खोले हुये घर से बाहर न जाये, सुबह शाम सोना नहीं चाहिए। इस प्रकार इन निषिद्ध कर्मों का त्याग कर सदैव पवित्र और सौभाग्य के चिह्नों से सुसज्जित रहे। प्रातः गाय, ब्राह्मण, लक्ष्मीजी और भगवान नारायण की पूजा करके ही कलेवा करे। सुहागिन स्रियों व पति की सेवा में संलग्न रहे। और यही भावना करती रहे कि पति का तेज मेरी कोख में है। अपने पति की बात मानकर दिति उनके ओज से सुंदर गर्भ धारणकर पुंसवन व्रत का पालन करने लगी।

वह भूमि पर सोती थी और पवित्रता का सदा ध्यान रखती थी। इस प्रकार जब उसका तेजस्वी गर्भकाल पूर्ण होने को आया तो दिति के अत्यन्त दीप्तिमान अंगों को देखकर अदिति को बड़ा दुःख हुआ। उसने अपने मन में सोचा कि यदि दिति के गर्भ से इन्द्र के समान महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जाएगा। इस प्रकार चिन्ताग्रस्त अदिति ने अपने पुत्र इन्द्र से कहा इस समय दिति के गर्भ में तुम्हारा शत्रु पल रहा है। अतः ऐसा कोई प्रयत्न करो कि गर्भस्थ शिशु नष्ट हो जाए। दिति का वह गर्भ मेरे हृदय में लोहे की कील के समान चुभ रहा है। अतः जिस किसी भी उपाय से तुम उसे नष्ट कर दो।

जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोग की भांति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य का कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रु को अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले। चतुर राजनीतिज्ञ वही है जिसे शत्रु के घर की एक-एक बात का पता हो। इन्द्र कोई साधारण राजनीतिज्ञ नहीं हैं। अपनी माता की बात मानकर इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी सौतेली माता के पास गए। उस पापबुद्धि इन्द्र ने ऊपर से मधुर किन्तु भीतर से विषभरी वाणी में विनम्रतापूर्वक दिति से कहा, हे माता ! व्रत के कारण आप अत्यन्त दुर्बल हो गयी हैं अतः मैं आपकी सेवा करने के लिए आया हूँ।’ जिस प्रकार बहेलिया हिरन को मारने के लिए हिरन की सी सूरत बनाकर उसके पास जाता है, वैसे ही देवराज इन्द्र भी कपट-वेष धारण करके व्रतपरायणा दिति के व्रत-पालन की त्रुटि पकड़ने के लिए उसकी सेवा करने लगे।

एक दिन व्रत के नियमों का पालन करते-करते बहुत दुर्बल हो गयी दिति से इन्द्र ने कहादृमाता मैं आपके चरण दबाऊँगा; क्योंकि बड़ों की सेवा से मनुष्य अक्षय गति प्राप्त कर लेता है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे। चरण दबने से दिति को बहुत सुख हुआ और उसे नींद आने लगी। उस दिन वह पैर धोना भूल गयी और बाल खोले ही सो गई। दिति को नींद के वशीभूत देखकर इन्द्र योगबल से अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथ में शस्त्र लेकर बड़ी सावधानी से दिति के उदर में प्रवेश कर गये और वज्र से उस गर्भस्थ बालक के सात टुकड़े कर डाले। तब वे सातों टुकड़े सूर्य के समान तेजस्वी सात कुमारों के रूप में परिणत हो गए।

वज्र के आघात से गर्भस्थ शिशु रोने लगे। तब दानवशत्रु इन्द्र ने उससे ‘मा रुद’ ‘मत रोओ’ कहा। फिर इन्द्र ने उन सातों टुकड़ों के सात-सात टुकड़े और कर दिये। इस प्रकार उनचास (49) कुमारों के रूप में होकर वे जोर-जोर से रोने लगे। तब उन सबों ने हाथ जोड़कर इन्द्र से कहादृ’देवराज ! तुम हमें क्यों मार रहे हो? हम तो तुम्हारे भाई मरुद्गण हैं।’ इन्द्र ने मन-ही-मन सोचा कि निश्चय ही यह सौतेली माँ दिति के व्रत का परिणाम है कि वज्र से मारे जाने पर भी इनका विनाश नहीं हुआ। ये एक से अनेक हो गये, फिर भी उदर की रक्षा हो रही है। इसमें संदेह नहीं कि ये अवध्य हैं, इसलिए ये देवता हो जाएं। जब ये रो रहे थे, उस समय मैंने इन गर्भ के बालकों को ‘मा रुद’ कह कर चुप कराया था, इसलिए ये मरुद्गण नाम से प्रसिद्ध होंगे। इन्द्र ने सौतेली माता के पुत्रों के साथ शत्रुभाव न रखकर उन्हें सोमपायी (सोमरस का पान करने वाले) देवता बना लिया।

छल से छीन लिया भगवान विष्णु ने शिव से बद्रीधाम

छली इन्द्र द्वारा अपने गर्भ को विकृत किया जानकर दिति जाग गई और दुःखी होकर क्रोध करने लगी। यह सब मेरी बहन अदिति द्वारा कराया गया है। ऐसा जानकर दिति ने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनों को शाप दे दिया कि इन्द्र ने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न-भिन्न कर डाला है, उसका त्रिभुवन का राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय। जिस प्रकार पापिनी अदिति ने गुप्त पाप के द्वारा मेरे गर्भ को नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायेंगे और वह पुत्र-शोक से अत्यन्त चिन्तित होकर कारावास में रहेगी। तब कश्यपजी ने दिति को शांत करते हुए कहादृदेवी ! तुम क्रोध मत करो। तुम्हारे ये उनचास पुत्र मरुद् देवता होंगे, जो इन्द्र के मित्र बनेंगे।

तुम्हारा शाप अट्ठाईसवें द्वापरयुग में सफल होगा। वरुणदेव ने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापों के संयोग से यह अदिति मनुष्य योनि में जन्म लेकर देवकी के रूप में उत्पन्न होगी और अपने किए कर्म का फल भोगेगी। एक बार ऋषि कश्यप ने अपने आश्रम में एक विशाल यज्ञ का आयोजन करवाया तथा उन्ही के समान विद्वान पंडितो को इस यज्ञ को सम्पन्न करने के लिए बुलाया परन्तु यज्ञ को आरम्भ  करने के लिए ऋषि को यज्ञ में प्रयोग होने वाली सामग्री जैसे दूध, घी की व्यवस्था करनी थी जिसके लिए उन्होंने वरुण देव का आह्वान किया।

वरुण देव के प्रकट होते ही ऋषि कश्यप उनसे बोले की में एक विशाल यज्ञ आयोजित करा रहा हूं अतः मुझे वरदान दीजिए की मेरे द्वारा आयोजित की जाने वाले इस यज्ञ में प्रयोग होने वाली सामग्री का कभी अभाव न हो तथा यह यज्ञ भलीभाति सम्पन्न हो जाए। वरुण देव ने उन्हें वरदान देते हुए एक दिव्य गाय भेट की और कहा यज्ञ समाप्ति के बाद में इस गाय को वापस आपसे ले लूंगा। कश्यप ऋषि का यज्ञ अनेक दिनों तक चला तथा वरुण देव द्वारा दी गई गाय के प्रभाव से उनके यज्ञ में कभी भी बाधा नही आई व यज्ञ में प्रयोग होने वाली वस्तुओ का प्रबंध स्वतः ही होता रहा।

जब यज्ञ का कार्य सम्पन्न हुआ तो ऋषि कश्यप के मन में उस अद्भुत गाय को लेकर लालच उतपन्न हुआ तथा वे अब इस दिव्य गाय को वरुण देव को वापस लोटना नही चाहते थे। यज्ञ पूरा होने के कई दिनों तक जब ऋषि कश्यप उस गाय को वापस लौटाने वरुण देव के पास नही गए तो एक दिन वरुण देव उनके सामने प्रकट हुए तथा बोले ‘ हे मुनिवर, मेने आपको यह दिव्य गाय यज्ञ को सम्पन्न करने के लिए दी थी अब आपका उद्देश्य पूर्ण हो चुका है तथा यह दिव्य गाय स्वर्ग की सम्पत्ति है अतः इसे अब वापस लोटा दे। तब ऋषि कश्यप हिचकिचाते हुए वरुण देव से बोले की ब्राह्मण को दान में दी गई वस्तु को कभी उससे नही मांगना चाहिए अन्यथा वह व्यक्ति पाप का भागी बनता है।

अब यह गाय मेरे संरक्षण में है अतः में इसका देखभाल भलीभाति करूंगा। वरुण देव ने उन्हें अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया की वह गाय को इस प्रकार से पृथ्वी पर नही छोड़ सकते परन्तु ऋषि कश्यप ने उनकी एक ना सुनी अंत में वरुण देव हारकर ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मलोक पहुंच वरुण देव ने उन्हें सारी बात बताई, वरुण देव के कहने पर ब्रह्म देव पृथ्वीलोक में ऋषि कश्यप के सामने प्रकट हुए. ब्रह्म देव ने ऋषि कश्यप को समझाते हुए कहा की आप क्यों लोभ में पड़कर अपने समस्त पुण्यो को नष्ट कर रहे हो आप जैसे महान ऋषि को यह शोभा नही देता।

ब्रह्माजी के बहुत समझाने पर ऋषि कश्यप पर कोई प्रभाव नही पड़ा और वे अपने फैसले पर अटल रहे। ऋषि कश्यप के इस तरह के व्यवहार से ब्रह्मा जी क्रोधित हो गए तथा उन्हें श्राप देते हुए बोले की तुम इस गाय के लोभ में पड़कर अपने सोचने की समझने की क्षमता खो चुके हो अतः तुम अपने अंश से पृथ्वी लोक में गोपालक के रूप में जन्म लोगे।

श्राप सुनकर ऋषि कश्यप को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने अपने इस गलती के लिए ब्रह्मा जी तथा वरुण देव से क्षमा मांगी। जब ब्रह्मा जी का क्रोध शांत हुआ तो उन्हें पछतावा हुआ की क्रोध में आकर उन्होंने ऋषि कश्यप को श्राप दे दिया। वे श्राप को परिवर्तित करते हुए ऋषि कश्यप से बोले की तुम अपने अंश से यदुकुल में उतपन्न होगे तथा वहा गायो की सेवा करोगे व स्वयं भगवान विष्णु तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। इस प्रकार ऋषि कश्यप ने वासुदेव के रूप में पृथ्वी में जन्म लिया और उन्हें भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण के पिता बनने का सौभाग्य मिला।

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