किधर जा रहा है कश्मीर

Samachar Jagat | Wednesday, 24 May 2017 05:04:56 PM
Where is Kashmir going?

केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने रविवार को सिक्किम में अपने संबोधन के दौरान देश को आश्वस्त किया कि उनकी सरकार कश्मीर समस्या का स्थाई हल निकालेगी। इसी दिन एक अन्य केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि केंद्र सरकार कश्मीर में आतंकवाद रोकने के लिए जल्द ही कड़ा कदम उठाएगी। इसी दिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी भरोसा दिलाया कि राज्य के मौजूदा हालात से भचतित होने की जरूरत नहीं है और उसे नियंत्रित कर लिया जाएगा। उनके मुताबिक कश्मीर समस्या वस्तुत: घाटी के साढ़े तीन जिलों तक सीमित है। 

इन बयानों के बावजूद कश्मीर की स्थितियां कोई बहुत उम्मीद नहीं जगातीं। आतंकियों के हमले, उनकी घुसपैठ, सीमा पर गोलीबारी और पत्थरबाजी का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। पिछले कुछ समय से तो स्कूली छात्र और छात्राएं भी पत्थरबाजी करने में लगे हुए हैं। अगर वे छात्र नहीं हैं तो फिर इसका मतलब है कि पेशेवर पत्थरबाज स्कूली बैग और ड्रेस से लैस होकर पथराव कर रहे हैं। अगर वे छात्र ही हैं तो क्या अभिभावक और शिक्षक उन्हें पथराव करने के लिए उकसा रहे हैं? जैसे इस सवाल का कोई जवाब नहीं वैसे ही इसका भी नहीं कि अशांति के कारण स्थगित किया गया अनंतनाग उपचुनाव अब कब होगा? भले ही भारत सरकार की ओर से बार-बार यह कहा जा रहा हो कि पाकिस्तान कश्मीर में आतंकवाद और अलगाववाद भडक़ा रहा है, लेकिन यह कोई नई-अनोखी बात नहीं है। 

ऐसे बयान देने भर से कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती। आखिर पाकिस्तान को कश्मीर में दखलंदाजी करने से रोकना किसकी जिम्मेदारी है? या तो कश्मीर में पाकिस्तान के दखल को खत्म करने को लेकर कुछ नहीं किया जा रहा या फिर जो कुछ किया जा रहा उसमें सफलता नहीं मिल पा रही है। जो भी हो, पाकिस्तान कश्मीर में न केवल अलगाववाद और आतंकवाद को हवा दे रहा है, बल्कि आजादी के आंदोलन का जेहादीकरण भी कर रहा है। कश्मीर की आजादी की मांग दरअसल इस्लामी शासन की मांग है। 

हालांकि जबसे हिजबुल मुजाहिदीन के एक आतंकी ने इसकी पुष्टि की है तबसे हुर्रियत नेता यह सफाई देने में लगे हुए हैं कि आजादी के उनके आंदोलन का इस्लामीकरण नहीं हुआ है, लेकिन तथ्य यही है कि आजादी की बेतुकी मांग का लक्ष्य कश्मीर में इस्लामी शासन कायम करना है। ऐसा नहीं है कि कश्मीर में आईएस और लश्कर के झंडे लहराए जाने बंद हो गए हों, लेकिन अब वे कश्मीर आधारित मीडिया और सोशल मीडिया में दिखने बंद हो गए हैं। कश्मीर में सक्रिय जो भी अलगाववादी संगठन यह साबित करने में जुटे हैं कि उनका आंदोलन का जेहाद से कोई लेना-देना नहीं वे झूठ का सहारा ले रहे हैं। कश्मीर में हाशिये पर जाती सूफी संस्कृति से इस झूठ की पोल खुलती है। 

सबको पता है कि कैसे कश्मीर में लड़कियों के मशहूर बैंड प्रगाश को गैर इस्लामी बताकर और उसके खिलाफ फतवा जारी करा कर बंद करा दिया गया। कश्मीर को शांत करने और पटरी पर लाने के लिए क्या पहल की जा रही है, इस बारे में राज्य और केंद्र सरकार के अलावा शायद ही किसी को कुछ पता हो। भले ही भाजपा और पीडीपी के राजनीतिक रिश्ते ठीक बताए जा रहे हों और राज्यपाल शासन की संभावना-आशंका को खारिज किया जा रहा हो, लेकिन यह सबको दिख रहा है कि महबूबा मुफ्ती सरकार दिन-प्रतिदिन निष्प्रभावी होती जा रही है। भारत सरकार कह रही है कि वह अलगाववादियों से बात नहीं करेगी, लेकिन महबूबा मुफ्ती सरकार यही रट लगाए है कि मोदी सरकार हुर्रियत नेताओं से बात करे।

 यही चाहत नेशनल कांफे्रंस के नेताओं की भी है। जब पीडीपी सत्ता से बाहर थी तो वह हुर्रियत कांफे्रंस की बी टीम के रूप में जानी जाती थी। आज इसी स्थिति में नेशनल कांफे्रंस है। हालांकि महबूबा मुफ्ती सरकार में कभी अलगाववादी रहे सज्जाद गनी लोन भाजपा की ओर से मंत्री के रूप में शामिल हैं, लेकिन किसी को नहीं पता कि वह क्या कर रहे हैं? यदि उनकी स्थिति भाजपा के अन्य मंत्रियों जैसी है तो इसका मतलब है कि वह मूकदर्शक बने हुए हैं। यदि हुर्रियत और अन्य अलगाववादी एवं पाकिस्तान परस्त नेताओं से बात नहीं करनी तो फिर उन्हें कश्मीर में सक्रियता दिखाने से क्यों नहों रोका जा रहा है? आखिर वे हड़ताली कैलेंडर जारी करने के लिए क्यों स्वतंत्र हैं? गिलानी पर मेहरबानी का औचित्य समझना कठिन है। 
पाकिस्तान से पैसा पाने के मामले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने उनके साथियों से पूछताछ अवश्य शुरू की है, लेकिन ऐसा लगता है कि यह एक स्टिंग ऑपरेशन के बाद की जाने वाली खानापूरी भर है, क्योंकि हुर्रियत नेताओं पर पाकिस्तान से पैसा लेने के आरोप तो न जाने कब से लग रहे हैं। कश्मीर में बिना पैसे के अलगाववाद की दुकानें चल ही नहीं सकतीं। सबसे अजीब यह है कि गिलानी के नाती को जम्मू-कश्मीर सरकार नियमों में ढील देकर नौकरी भी देती है और यह शिकवा भी करती है कि कुछ लोग बच्चों के हाथों में पत्थर थमा रहे हैं।

पता नहीं महबूबा मुफ्ती यह क्यों नहीं कह पातीं कि यह काम गिलानी एंड कंपनी के लोग ही कर रहे हैं? एक अजब-गजब यह भी है कि एक ओर कश्मीरी पंडितों की वापसी मुश्किल बनी हुई है और दूसरी ओर जम्मू इलाके में रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों की बसाहट बढ़ रही है। रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों के प्रति संवेदनशीलता का परिचय दिया जाना चाहिए, लेकिन आखिर उन्हें पहले से ही संवेदनशील इलाके में बसाना क्यों जरूरी है? चूंकि इन सारे सवालों का कोई जवाब नहीं इसलिए समझना कठिन है कि कश्मीर में क्या हो रहा है और वह किधर जा रहा है? बीते तीन सालो में मोदी सरकार कश्मीर संबंधी अपने किसी वायदे को पूरा नहीं कर सकी है। 

अब तो कश्मीरी पंडितों की वापसी भी और मुश्किल नजर आने लगी है। नि:संदेह यह एक कठिन काम है, लेकिन इसे पूरा करने के लिए कोई तो पहल होनी चाहिए थी। इसी तरह कश्मीर में अन्य मोर्चों पर भी कोई पहल होनी चाहिए थी। यह तो समझ आता है कि पहल परवान न चढ़े, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं कि कोई पहल ही न हो। यदि सरकार कश्मीरी अलगाववादियों को थकाने की किसी नीति पर चल रही है तो भी यह देखना होगा कि क्या वे वाकई थके हुए दिखने लगे हैं?



 

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