नरेंद्र बंसी भारद्वाज: आपने यह वाक्य तो जरुर सुना ही होगा की "सो जा बेटा वर्ना 'हाबू' आ जाएगा"। राजस्थान के हर एक अंचल में आज भी बचपन में बच्चों को 'हाबू' के नाम से डराया जाता है। क्या है 'हाबू' नाम की यह बला?
शायद आप इसे ना जानते हो। लेकिन राजस्थान के गौरवमयी इतिहास के साथ 'हाबू' का एक गहरा सम्बन्ध रहा है। तो आइए जानते हैं 'हाबू' का सच, इतिहास में किसे, क्यों और कैसे कहा जाने लगा 'हाबू'? क्या है इस 'हाबू' की सच्चाई....
इतिहास को लेकर आज भी राजस्थान के जनमानस में गहरी रूचि है। क्योंकि एकीकरण से पहले राजस्थान का नाम राजपुताना था और यहाँ राजपूत राजाओं का शासन था। इन देशी रियासतों और राजाओं को लेकर बहुत सी कहानियां और किवदंती प्रचलित है।
शुरुआत से अब तक रियासतों और राजाओं के बारे में जानकारियों को जानने के लिए जनमानस में एक गहरी रूचि रही है। राजस्थान के अंचलों में प्रचलित 'हाबू' का अपना एक इतिहास है। 'हाबू' शब्द करीब चार सौ साल पुराना है।
राजस्थान के अंचलों में प्रचलित कहानियों के अनुसार इतिहास में सबसे पहले 'हाबू' राजस्थान की ढूढाड़ रियासत के महाराजा मानसिंह प्रथम को कहा गया था। मुग़ल बादशाह अकबर के साम्राज्य में महाराजा मानसिंह शक्ति का एक प्रमुख केंद्र थे।
21 दिसम्बर, 1550 ईस्वी को जन्मे महाराजा मानसिंह प्रथम के बारे में तो आप सभी ने सुना ही होगा यह वही शक्स थे, जो अकबर के नवरत्नों में शुमार थे। यह अकबर के दरबार में एक मात्र ऐसे राजपूत राजा थे जिन्हें नौ हजार मनसबदारी होने का सम्मान प्राप्त था।
महाराजा मानसिंह अकबर के सबसे विश्वासपात्र सेनापतियों में से एक थे। इन्होंने अकबर के लिए बहुत सी लड़ाई लड़ी और जीती भी। अकबर ने महाराजा मानसिंह को 'फर्जन्द' की उपाधि से भी नवाज था। इस 'फर्जन्द' का शाब्दिक अर्थ 'बेटा' या 'पुत्र' होता है।
प्रचलित किवदंतियों और कहानियों के अनुसार महाराजा मानसिंह प्रथम को ही हाबू कहा जाता था। क्योंकि महाराजा मानसिंह प्रथम के बारे प्रचलित कहानियों के अनुसार वह करीब साढ़े छह फ़ीट से पौने सात फ़ीट लंबे थे। जो की एक मजबूत शारीरिक संरचना के धनी थे।
महाराजा मानसिंह देखने में कुछ खास सुन्दर नहीं थे। इनका चेहरा खूबसूरती से बिलकुल उलट था और इन्हीं वजहों से प्रचलित कहानियों और किवदंतियों के अनुसार महाराजा मानसिंह प्रथम को हाबू कहा जाता था। हालांकि महाराजा मानसिंह प्रथम को हाबू कहने के इतिहास में कहीं भी प्रमाण नहीं है।
ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार अकबर ने अपने नवरत्नों में शुमार मानसिंह प्रथम से भरे दरबार में एक बार यह सवाल पूछा था "मानसिंह जब ख़ुदा नूर बांट रहे थे तब तुम कहां थे।" इस पर महाराजा मानसिंह ने अपनी सूझबूझ का परिचय देते हुए कहा कि "जहांपनाह उस समय में दोनों हाथों से बहादुरी और शौर्य बटोर रहा था।"
मानसिंह और अकबर का यह वाकया साबित करता है कि मानसिंह प्रथम देखने कुछ खास खूबसूरत नहीं थे।
मानसिंह द्वारा बहादुरी से लड़ी गई लड़ाईयां और उनमें मिली फ़तह उनके शौर्य की अमर गाथाएं कहती नज़र आती है। 6 जुलाई, 1615 ईस्वी में महाराजा मानसिंह प्रथम की बंगाल में मृत्यु हुई थी।
महाराजा मानसिंह प्रथम ने अपने कुल 65 वर्ष के जीवन काल के दौरान मुग़ल साम्राज्य के विस्तार में अहम् भूमिका अदा की थी। इन्होंने हल्दीघाटी समेत बहुत से युद्ध लड़े और उन्हें अपने शोर्य के बल पर जीता भी। मानसिंह के पराक्रम के बल पर ही अकबर की साम्राज्यवादी विस्तार की नीति से साम्राज्य को बढ़ाने में बहुत मदद मिली थी।