बड़ी प्रचलित कहावत है कि ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड सकता है’ अकेला व्यक्ति कोई भी काम अच्छा नहीं कर सकता लेकिन नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप लगता है इस कहावत के इस रूप में सही सिद्ध करने मेंलगे हैं कि अकेला व्यक्ति ही बहुत कुछ कर सकता है। हमारी चिंता यह है कि उनकी रीति और नीति से हम प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभावित हो रहे हैं।
ट्रंप भी अपने चुनाव पूर्व वादों में जो कुछ कहा उनको बिल्कुल वैसे ही लागू करने का साहस दिखा रहे तो लोकतांत्रिक आधार पर तो यह बात आदर्श ही मानी जाएगी। फिर भी टं्रप ने मेक्सिकों की सीमा पर वहां के अवैध नागरिकों को अमेरिका में प्रवेश पर आतंकवाद पर रोक के नाम पर प्रतिबंध लगाने, विदेशों में कार्यरत कंपनियों के अमेरिका में आने पर करों में विशेष छूट देना पहले की तुलना में दो गुना वेतन पाने वालों को ही वहां रहने देने, अमेरिका की तुलनात्मक रूप में घट रही परमाणु ताकत को बढ़ाने, चीनी सामान के अमेरिका में आपात की कठिन और महंगा करने, पाकिस्तान सहित सभी देशों को आतंकवादियों पर रोक लगाने की धमकी देने उत्तरी कोरिया की शत्रुतापूर्ण हरकतों पर ताकत के बल पर रोक लगाने, चीन से वर्चस्व के लिए सीधे उलझने की मंशा दिखाने, इजरायल को अरब एवं फिलिस्तीनियां संबंधी अपनीति में परिवर्तन की सलाह देने फेडरल रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि के समर्थन में रुख बताने तथा यथा संभव अमेरिका को अपने देश में निर्मित वस्तुओं को ही उपयोगकरने का खुला आह्वाान करने के कारण विश्व स्तर पर आर्थिक हलचल पैदा हो गई है।
हर तरफ आशंका और एक सीमा तक हतशा का माहौल बन गया है ।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि जो अमेरिका वैश्विकरण माने स्वतंत्र अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा समर्थक और विश्वव्यापार संगठन का प्रारंभकर्ता था वह मात्र अपने स्वार्थों के लिए पुन: नियंत्रण वाली अर्थव्यवस्था की ओर बिना विश्व समुदाय, मर्यादाऔर दायित्वों की चिंता किये आगे बढ़ रहा है। इससे ेप्रभावित होकर चीन, भारत, यूरोपियन संघ से संबंधित देश भी ऐसी ही संरक्षणवादी नीतियां अपने को मजबूर होंगे।
तो वैश्विक आर्थिक परिस्थितियां अस्त व्यस्त होनी ही है। ट्रंप की सीधी सी मंशा अमेरिकन कंपनियों द्वारा आउट सोर्स किए जा रहे कार्य पुन: अमेरिका में ही अमेरिकियों द्वाराही करवाये जाने की है। इससे भारत पर बहुत अधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता निश्चित है। क्योंकि भारत की सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों का आधे से अधिक कार्य वहां की कंपनियों से ही मिलता है। वर्तमान में आईटी कम्पनियां ही इससे अधिक रोजगार देने वाली बंधी हुई है।
जिनके कारण प्रबंध सूचना प्रौधोगिकी, वित्त स्वगात मार्केटिग जैसे क्षेत्रों के स्नातकों को तुरंत रोजगार उपलब्ध हो रहा है। जिसकी रफ्तार के बाधित हो जाने से पहले ही से बेहाल बेरोजगारी की समस्या अधिक विकास रूप से सकती है।
इसी अमेरिका ने भारत को स्वतंत्र अर्थव्यवस्था को अपनाने के लिए ही हर प्रकार के दबाव डाले है। आज भी भारत पर भारतीय किसानों को सब्सिडी नहीं देने और अपनी आवश्यकता का कम से कम दस प्रतिशत आयात करने का पूरा जोर समा रखा है। जबकि वह स्वयं भारत के कुस कृषि उत्पादन मूल्य से भी अधिक सब्सिडी अपने कृषकों को देता है। कुल उत्पादन इतना अधिक है कि वहां उत्पादित मक्का का करीब आठ प्रतिशत उपत्पादन शराब बनाने के काम में आता है तथा खाघान का आयात उपवाद स्वरूप ही करता है।
यह सही है कि वहां की 30.9 करोड़ की जनसंख्या में 1.4 प्रतिशत लोग ही मूल अमेरिकी है तथा उनकी हालात वहां बाहर से आए अमेरिकियों की तुलना में बहुत खराब है। मतलब संसार की महाशक्ति पर गैर मूल निवासियों से ही बचा है। यहूदी तो वहां सर्वाधिक सम्पन्न है तथा भारतीयों का योगदान भी अतुलनीय है। इसी प्रकार मेक्सिकों से सस्ते श्रमिक अधिक संख्या में आए है तथा भारत से बहुत सस्ते प्रोफेशनल्स उसे आवश्यकता के समय मिले। भारत से बड़ी संख्या में स्तरीय डॉक्टर्स, इंजीनियर्स, चार्टर्ड एकाडन्टेंट्स, वित्त विश्लेषक, प्रबंध विशेषज्ञ, साहसी तथा व्यापारिक कौशल रखने वाले लोग वहां गए है तथा वहां की अर्थव्यवस्था को सबसे बड़ा बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
अब जब परिस्थितियां विपरीत हो गई है तो वह भूमंडलीकरण की नीतियों से स्वार्थवश पीछे हट रहा है। अमेरिका ने पूर्ण में भी लगातार भारत का उपयोग अपने व्यापारिकहितों के लिए किया है तथा भारत के हितों को हमेशा में सस्ता श्रम है। वह अमेरिका में अपना भविष्य देखता है। पूंजी जिसका स्वतंत्र प्रवाह तो उसकी अर्थव्यवस्था के हित में है के लिए उसने भारत पद हर प्रकार का दबाव डाला है। भारत ने अंतराष्ट्रीय समझौते की पालना के नाम पर अपने स्वदेशी निवेशको के हितों के विपरीत एैसा किया भी है। उस कारण से भारत में जो मूलत: साहसियों का देश है धीरे-धीरे उनका एक तरह से अस्तित्व ही समाप्त हो गया है।
अभी तक पूरे संसार में छाऐ हुए मारवाडि़यो, गुजरातियों, पंजाबियो की गतिविधियां अपने देश मेें ही मृत सी हो गई है। हालात तो इतने पतले है कि बिड़ला को अपना ‘हिन्दुस्तान’ बेचने को मजबूर होना पड़ रहा है। ऐसा पूंजी प्रवाह के स्वतंत्र हो जाने के कारण ही हो रहा है। आज हम डल्सूटीओ जिसकी लगाम अमेरिका के पास ही है के दबाव के कारण ही एफडीआई को खोलने को मजबूर हो रहे है। जबकि इसी देश के प्रभाव के कारण श्रम का उस स्तर का स्वतंत्र प्रवाह नही हो पा रहा है।
जो भारत सहित संसार के सभी विकासशील व अद्र्धविकसित देशो के हित में है। वही अमेरिकी अब अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए भारत के प्रोफेशनल को अपने यहां आने से रोकने के लिए सभी समझौतो को खुले आम ताक में रख रहा है। जो एक तरह का विश्वासघात है। ट्रंप ने विदेशो में कार्यरत निवेशकों को अमेरिका आने के लिए करो सहित कई प्रकार के प्रोत्साहन देकर स्वतंत्र अर्थव्यवस्था की अवधारणा पद ही हमला कर दिया है। जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था में हलचल सी मच गई है।
टं्रप ने ब्याज दरों में वृद्धि की मानसा जाहिर कर भारत में आए विदेशी निवेश के वापस चले जाने का सीधा खतरा उत्पन्न कर दिया है। इस कारण मेक इन इंडिया की सारी योजना ही असफलत होती दिखाई दे रही है। जब अमेरिका अपने यहां कम से कम विदेशी सामान आयात करने की नीति पद चलेगा तो भारत के निर्यातो पद नकारात्मक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। चीन व भारत जैसे बडे व्यापारिक देश जब संरक्षणवादी नीतियों पर चलने को मजबूर कर दिए जाएंगे तो आस्थिरता का वातावरण बनना स्वाभाविक है। अमेरिका की नीति का सीधा व तुरंत नकारात्मक प्रभाव भारतीय शेयर बाजारों पर पड़ने की पूरी आशंका है। क्योंकि वहां निवेश करने वाले अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ जाने पर उन्हें आकर्षित होंगे।
ऐसे में भारत के सामने केवल विकल्प तत्काल संबंधित देशों के साथ मिलकर सामूहिक प्रतिवाद की योजना बनाने, ट्रम्प की नीतियों की काट निकालने, देश में उद्यमिता को प्रोत्साहित करने उब्लुतीओ में सामले को गंभीरता से उठाने, अमेरिका के साथ सीधी एवं साष्ट बातचीत करने, आयात प्रतिस्थापन की नीति को अपनाने अपने हितो को प्रथम वरीयता में रखने और सबसे महत्वपूर्ण नये कार्यक्रमों की घोषणा बंद कर घोषित को पूर्ण करने का ही रह गया है।