सुप्रीम कोर्ट ने देशभर में कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों पर चिंता जताते हुए केंद्र को इस संबंध में रोडमैप तैयार करने का आदेश दिया है। मुख्य न्यायाधिपति जे.एस. खेहर की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि सिर्फ मरने वाले किसान के परिवार को मुआवजा देना काफी नहीं है।
आत्महत्या की वजहों को पहचानना और उनका हल निकालना जरूरी है। इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने पिछले महीने केंद्र और सभी राज्यों को नोटिस जारी किया था। एक गैर सरकारी संगठन की याचिका पर सुनवाई के दौरान अदालत ने यह टिप्पणी की है। न्यायालय ने कहा कि ये समस्या दशकों से चली आ रही है, लेकिन अभी तक इसकी वजहों से निपटने के लिए कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई है और न ही कोई कार्यकारी योजना तैयार की गई है।
हालांकि केंद्र सरकार ने कोर्ट में कहा कि उम्मीद है कि 2015 की फसल बीमा योजना से आत्महत्या के मामलों में बड़ी कमी आई है। इस मामले की अगली सुनवाई 27 मार्च को होगी। दरअसल, देश के तमाम राज्यों में किसान फसलों की बर्बादी और कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या करने को मजबूर है। यहां यह उल्लेखनीय है कि देश में किसान कर्ज और कम पैदावार के कारण लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट के तथ्य नए सिरे से इस आशंका को पुष्ट करते हैं कि कर्जदारी और दिवालिया होना किसान-आत्महत्या की सबसे बड़ी वजह है।
30 दिसंबर 2016 को किसानों की आत्महत्या पर राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों से इस बात का खुलासा हुआ है कि वर्ष 2015 में कुल 8007 किसानों ने आत्महत्या की, जो वर्ष 2014 में आत्महत्या करने वाले 5650 किसानों की तुलना में 42 फीसदी अधिक है। वहीं किसानों की स्थिति के आकलन पर केंद्रित राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में कर्जदार किसान परिवारों की संख्या बीते दस सालों (2003-2013) में 48.6 प्रतिशत से बढक़र 52 प्रतिशत हो गई है और हर कर्जदार किसान परिवार पर औसतन 47 हजार रुपए का कर्ज है।
वहीं एक रिपोर्ट के अनुसार 2015 में रोजाना औसतन चार किसान जान दे रहे थे, जो 2016 के खत्म होते-होते बढक़र छह हो गए हैं। साफ है पांच साल में किसानों की आय दोगुनी करने के दावों के बीच किसानों की बदहाली की बेहद दुखद तस्वीर है, जो सामने है। फिर भी कृषि संकट को दूर करने के लिए सरकार के पास ठोस रणनीति या कार्य योजना नहीं है।
किसानों की दयनीय स्थिति किसी से छुपी नहीं है, आजादी के इतने वर्षांे बाद भी आधुनिकता के इस युग में भी किसान आत्महत्या करने को बेबस है। अहम सवाल यह है कि जब पैदावार अच्छी होती है तो भी किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। किसान के लिए उसके खेत-खलिहान और उसकी फसल ही उसका भविष्य, उसकी तरक्की, उसके अरमान, उम्मीदें सब कुछ होती है। लेकिन जब सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि, ओलावृष्टि या फिर किसी कारणवश फसल नष्ट हो जाए तो उसका सब कुछ बर्बाद हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि किसानों की यह स्थिति केवल वर्तमान समय में है। किसानों की यह दयनीय दशा हमेशा से बनी हुई है। चाहे वह कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की सरकार सभी के कार्यकाल में किसानों का शोषण हुआ है। असल में पहली हरित क्रांति और मौजूदा संकट के बीच कुछ समानता है। खाद्यान्न संकट ने भारत की पहली हरित क्रांति को जन्म दिया था। उस संकट ने सरकार को ऐसी नीतियां बनाने और कदम उठाने को मजबूर किया था, जिसकी परिणति हरित क्रांति के रूप में हुई।
कुछ इसी तरह के संकट ने एक बार फिर सरकार को किसान और किसानी के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया है। खास बात यह है कि किसानों और ग्रामीण भारत की तस्वीर और तकदीर बदलने के नारे के साथ सत्ता में आई राजग सरकार के करीब तीन साल बीत गए हैं और उसके पास अभी भी कोई ऐसी ठोस रणनीति नहीं है, जो कृषि को पटरी पर ला सके। भले ही वर्तमान सरकार कृषि ऋण को बढ़ाकर बजट में 10 लाख करोड़ रुपए कर दिया है, लेकिन इस कर्ज को चुकाने के लिए किसानों की आय बढ़ाने का कोई बड़ा कदम नहीं उठाया जा सका है।
दरअसल सरकार को किसान और किसानी की चिंता नहीं है। उसकी चिंता उस मध्यवर्ग को खुश रखने की है, जो इसके लिए राजनीतिक माहौल बनाता या बिगाड़ता है। इसलिए सारा जोर आपूर्ति बढ़ाकर कीमतों पर नियंत्रण पाने पर है। अभी नोटबंदी के दौरान किसानों को हजारों टन आलू और टमाटर सडक़ों पर फेंकना पड़ा। कोल्ड स्टोरों में पुराना आलू भरा होने के कारण नए आलू को रखने की जगह नहीं होने के कारण पुराना आलू सडक़ों पर डालना पड़ा। टमाटर को काम में लाने और उसका और कोई उपयोग करने की व्यवस्था नहीं होने के कारण उसे सडक़ों पर फेंकना पड़ा।
उपभोक्ताओं को तो आलू और टमाटर सस्ता मिल गया, किन्तु किसानों को अपनी उपज बाजार तक ले जाने और लागत के अनुसार मूल्य नहीं मिलने के कारण सडक़ों पर फेंकना पड़ा। दालों की बढ़ती कीमतों के मद्देनजर सरकार ने विदेशों से दाल आयात को तो जरूर बढ़ावा दिया, किन्तु देश में दलहन फसलों की उपज बढ़ाने की कारगर नीति नहीं बनाई गई। इन सब स्थितियों के चलते देश में खेती का कुल क्षेत्रफल सिमटा है और किसानों की संख्या तेजी से कम हो रही है। कहा तो खूब जाता है कि किसान हमारा अन्नदाता है।
और न जाने कितनी तरह की बाते हम करते रहे हैं। आज भी किसान वादों और घोषणाओं की उम्मीदों के सहारे जीने को मजबूर है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ दल और विपक्ष दोनों ने किसानों को सब्जबाग तो खूब दिखाए अब जो दल सत्ता में आया है, उसे वादों और घोषणाओं को जमीन पर उतारना है।