यह तथ्य निर्विवाद रूप से सत्य है कि जिस समाज एवं व्यवस्था में जनसंख्या के आधे भाग याने महिला की उपेक्षा की जाती है उसकी अर्थव्यवस्था में विकास की गति भी ‘धीमी’ होती है। इसके लिए संसार के अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, सोवियत रूस, स्वीडन आदि विकसित देशों का नाम लिया जा सकता है।
एक उदाहरण इराक का दिया जा सकता है जो मुस्लिम देश होते हुए भी ‘विकास’ में बहुत आगे है। क्योंकि वहां महिलाएं जीवन के किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं है। ऐसे देशों में महिला-पुरुष का भेद कम होने के कारण उनका विकास में योगदान गौण न रहकर समान हो जाता है।
वहां महिला की साक्षरता, शिक्षा, प्रशिक्षण, रिसर्च, उद्यमिता, सेवा, वित्त, प्रबंध, सूचना प्रोद्योगिकी, इंजिनियरिंग, कौशल विकास, श्रम, नियोजन आदि का स्तर समान होने के कारण वस्तु एवं सेवा क्षेत्रों में ‘उत्पादन’ में सतत् एवं सक्रिय भागीदारी होती है। इस दृष्टि से भारत सर्वाधिक जीडीपी का वार्षिक वृद्धि वाला देश होते हुए भी विकास व विकास के विवरण में बहुत पीछे है।
क्योंकि यहां अभी भी महिला की सामाजिक, पारिवारिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक, मानसिक, शैक्षणिक एवं सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक स्थिति तुलनात्मक रूप में बहुत कमजोर है। जिसका सीधा प्रभाव हमारे आर्थिक विकास तथा उससे संबंधित सभी बातों पर चाहे-अनचाहे, प्रत्यक्ष-परोक्ष, कम-ज्यादा रूप में पड़ता ही है।
भारत में आज भी नारी पर रात को अकेल नहीं निकलने, अपनी छवि का ध्यान रखने, पराये मर्दों से कम ‘व्यवहार’ रखने, भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों का ख्याल रखने, पति को परमेश्वर मानने, परिवार के लिए त्याग करने जैसे अनगिनित ‘प्रतिबंध’ लगे हुए हैं। इसी कारण से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद भी गृहणी बने रहने, योग्यता का सार्वजनिक प्रदर्शन खुलकर नहीं करने, ‘जो करना है अपने घर जाकर करना’ की सीमाएं अभी भी है।
तब ही हम देखते हैं कि एक तरफ हमारे यहां केवल मुश्किल से बीस प्रतिशत प्रोफेशनल्स खुले बाजार में एम्पलायेबल हैं तो दूसरी ओर करीब 75 प्रतिशत महिलाएं सक्षमता के बावजूद कोई व्यवसाय या व्यापार या कहे नौकरी नहीं करती है। इससे प्रत्यक्षत: संबंधित महिलाओं को आर्थिक नुकसान तो होता ही है। साथ ही उन्हें शिक्षित, प्रशिक्षित एवं दिक्षित करने मेें जो संसाधन खर्च किए जाते हैं वे बेकार हो जाते हैं। इन साधनों का उपयोग उन लोगों पर किया जाए जो इसके लिए तरस रहे हैं, जो साधन एवं अवसर मिलने पर बहुत कुछ करके बता सकते हैं। विकसित देशों मेें ऐसा बहुत कम होता है। कहने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है लेकिन सबकुछ नियोजित तरीके से होता है।
देश के संसाधनों का श्रेष्ठतम उपयोग ही मूलत: विकास एवं उसके श्रेष्ठतर उपयोग का आधार है। उन देशों में किसी को भी महिला या पुरुष की नजर से नहीं बल्कि व्यक्ति की तरह देखा जाता है। वहां ‘रात की पारी में महिला काम पर नहीं जाएगी’, केवल लड़कियों की शिक्षण संस्थान, ‘महिलाओं की सुरक्षा की अतिरिक्त व्यवस्था’, ‘महिला को अतिरिक्त संरक्षण एवं सहायता’, ‘यह क्षेत्र महिलाओं के लिए निषेध’ जैसी किसी बात का कोई अस्तित्व नहीं होता है। तब ही महिलाओं की देश के आर्थिक विकास में समान सहभागिता होती है तथा विकास में उन्हें लाभ भी उसी प्रकार समान रूप से मिलता है।
हम वास्तव में ही महिलाओं का सशक्तिकरण चाहते हैं। दिखावे के स्थान पर क्रियान्वयन की तरफ बढ़ना होगा। ऐसा हमारे देश मेें ही संभव है कि पिता की संपत्ति में लडक़ा-लडक़ी की समान भागीदारी का कानून होने के बावजूद किसी ‘महानायक’ की ऐसी घोषणा मीडिया में सुर्खिया बनती हैं।
जबकि विकसित देशों महिला अधिकारों तथा सशक्तिकरण के कानून या नियम का उल्लंघन होना ‘समाचार’ होता है और उस पर यथानुसार कार्रवाई होनी ही है। तब ही तो भारतीय समाज को हर तरह के अच्छे कानून बन जाने के बाद भी पुरुष प्रधान ही माना जाता है। इस मानसिकता, मनोवृति, आदत, परम्परा के कारण भारत विकास के उस स्तर को प्राप्त नहीं कर सका है।
जितना उसके संसाधनों को देखते हुए प्राप्त कर लेना चाहिए था। यह हमारी अहंकारी मानसिकता का ही परिणाम है कि हम महिलाओं के लिए बीस या एक तिहाई आरक्षण की ही मांग कर रहे हैं। जबकि रूस में जीवन के शिक्षा, प्रशिक्षण, पुलिस, मारकेटिंग, प्रबंधन आदि सभी क्षेत्रों में उनकी संख्या आधे बहुत ज्यादा है। यह ही स्थिति राजनीतिक की है। देश का आर्थिक विकास संतुलित, त्वरित एवं निरंतर करते रहने एवं उसके वितरण को यथासंभव समान बनाए रखने के लिए देश की पचास प्रतिशत के अधिकांश यथासंभव समान बनाए रखने के लिए देश की पचास प्रतिशत के अधिकांश भाग के विलगता को समाप्त या न्यूनतम करना बहुत ही जरूरी है।
वैसे तो इस स्थिति को सामाजिक, मानसिक एवं मनोवैज्ञानिक आधार पर स्वत: स्वीकारोक्ति के आधार पर ही करना आदर्श स्थिति है। परन्तु ऐसा करने की प्रक्रिया बहुत लम्बी होने के कारण नियमों एवं कानूनों में परिवर्तन, सहायता, सहयोग एवं प्रोत्साहन योजनाओं के क्रियान्वयन, आरक्षण जैसे हथियार के उपयोग का भी सहारा लिया जाना चाहिए।
देश के आर्थिक विकास की गति में वृद्धि के लिए महिला शक्ति को आगे लाना बहुत ही जरूरी है। क्यों वे तुलनात्मक रूप में अधिक संवेदनशील, तर्कपूर्ण, उत्तरदायित्वपूर्ण, लगनशील, नियमित, समयबद्ध होने के साथ ही कम अनियमितता व भ्रष्टाचार प्रेमी होती। उनके बारे में तब ही तो ‘काम से काम’ करने वाला कहा जाता है। इसकी पुष्टि के लिए यह कहा जा सकता है कि पिछले तीन दशक में भ्रष्टाचार के जो अनगिनित मामले सार्वजनिक हुए उनमें महिला का नाम अपवाद स्वरूप ही आया, बैंकों की एनपीए बढ़ाने वाली कंपनियों की प्रबंध निदेशक बहुत कम संख्या में महिला रही है। ऐसा ही हजारों की संख्या में ‘अदृश्य’ हो चुकी कंपनियों/फर्मस के बारे में कहा जा सकता है।
केंद्र एवं राज्य सरकारों में जितने अधिकारी है उनमें महिला अधिकारी तुलनात्मक रूप में अधिक ‘उत्पादक’हैं। ऐसे में भारत को विकास दर, विकास के वितरण तथा समन्वित विकास करना है तो महिला श्रम शक्ति को अधिक यथा योग्य बनाने की जरूरत है।
इसके लिए वैसे तो जेन्डर बजरिंग की अवधारणा को आगे बढ़ाने, महिला श्रमिकों को मनरेगा जैसी परियोजनाओं में भी बच्चों की देखभाल, प्रसुति अवकाश, मौसम के अनुसार काम में छूट आदि सुविधाएं देने, इनकी संख्या बढ़ाने जैसे काम किए जा रहे हैं, उनके प्रशिक्षण कार्यक्रमों को चलाया जा रहा है, मेडिकल के क्षेत्र में आशा सहयोगिनियों आदि पदों पर लाखों महिलाओं को रोजगार दिया गया है।
इससे ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक कुरुतियों को दूर करने, जागरूकता और सूचनापूर्णता बढ़ाने, अधिकारों की रक्षार्थ आवाज उठाने, पारिवारिक सोच में बदलाव लाने, उनके आर्थिक सरलीकरण की ओर बढ़ने में बहुत सहायता मिल रही है। इससे देश में आर्थिक विकास की सभी प्रकार की गतिविधियों में उनकी सहभागिता और सक्रियता तेजी से बढ़ ही रही है। जिसको और गति देने की परम आवश्यकता है।
सरकारों को चाहिए कि वो जिस प्रकार एससी, एसटी, ओबीसी के लिए हर तरफ आरक्षण की व्यवस्था करती है वैसा ही उसी वर्ग की महिलाओं के लिए किया जाना चाहिए। जिससे महिला उद्यमियों के लिए बैंकों से ऋण लेने, स्वयं सहायता समूहों को सशक्त बनाने, कौशल विकास केंद्रों की स्थापना करने, सहकारी समितियां बनाने में सुविधा हो सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रारम्भिक दौर में सभी क्षेत्रों में आरक्षण एवं वरीयता श्रेष्ठतर विकल्प या माध्यम हो सकता है। क्योंकि वैश्वीकरण के इस समय में इसका चेन प्रभाव स्वत: पड़ना आवश्यक है ही। बस जरूरत मानसिकता बदलने की है कि आर्थिक विकास में महिला की सक्रिय भूमिका हो सकती है।