समृद्धि की सर्जिकल स्ट्राइक

Samachar Jagat | Monday, 07 Nov 2016 05:41:27 PM
Prosperity Surgical Strike

भारतीय सेना के बहादुर जवानों द्वारा नियंत्रण रेखा के पार पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में साहसिक, सराहनीय और जरूरी सर्जिकल स्ट्राइक इन दिनों सबसे चर्चित मुद्दा है। इसने अंतरराष्ट्रीय मीडिया, विश्व के नेताओं और राजनयिकों का ध्यान आकृष्ट किया है। 

हालांकि विभिन्न मंचों से दिए गए बयानों और टिप्पणियों में न सिर्फ सर्जिकल स्ट्राइक, बल्कि इसके श्रेय और राजनीतिकरण को लेकर भी सवाल उठाए गए हैं। भले ही हमें सामरिक सुरक्षा और इससे जुड़े मुद्दों पर राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रिया के संदर्भ में ज्यादा जानकारी नहीं है, फिर भी अभी तक इस पर जितनी खबरें प्रकाशित हुई हैं उनको पढक़र, चर्चाओं को सुनकर और एक-दूसरे से आमने-सामने हुई बातचीत के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचते है कि पाकिस्तान जैसे उदंड देश के खिलाफ यह सर्जिकल स्ट्राइक अभूतपूर्व थी-इसे जिस पैमाने पर अंजाम दिया गया और जितनी कुशलता से अंजाम दिया गया, दोनों लिहाज से। फैसला लेने वाले और इसे जमीन पर अंजाम देने वाले बेझिझक वाहवाही के काबिल हैं। 

इस सर्जिकल स्ट्राइक ने भारतीय सेना की दक्षता और वीरता पर गर्व करने का एक और अवसर दिया है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने का भारतीय कूटनीतिज्ञों का प्रयास भी सराहनीय है। हालांकि विश्व स्तर पर राजनीतिक प्रशंसा का पहला दौर हताश करने वाला था। रूस के दृष्टिकोण में आए छोटे से बदलाव और आतंकवाद को नियंत्रित करने में पाकिस्तान की भूमिका के बारे में ब्रिटिश प्रधानमंत्री टेरेसा मे के बयान के बाद हालात थोड़े बदले। हालांकि इस आशय की खबरें पढऩे के दौरान मेरे मस्तिष्क में यह सवाल भी कौंधा कि अंतरराष्ट्रीय सोच में परिवर्तन की प्रक्रिया इतनी धीमी क्यों होती है?

 इस बारे में जब काफी विचार-मंथन किया तो एक जवाब अपने आप सामने आया। इसके पीछे अर्थशास्त्र प्रमुख वजह होती है। मौजूदा समय में अर्थशास्त्र ग्लोबल राजनीति का वाहक है। एक समय था जब रूस में राजनीतिक और आर्थिक आपदा और अराजकता ने दुनिया को दो ध्रुवीय से एक धु्रवीय में बदल दिया था, लेकिन आर्थिक शक्ति के रूप में चीन के उदय ने दुनिया को फिर से दो धु्रवीय बना दिया है।

 यह तथ्य है कि संबंधों से आर्थिक लाभ लेने की प्रवृत्ति विभिन्न देशों को नजदीक लाती है और इसका उल्टा भी उतना ही सच है कि जब आर्थिक लाभ नजर नहीं आते तो दो देशों में दूरी बनने लगती है। तथाकथित आर्थिक दिग्गज भी जिस देश में फायदा देखते हैं उससे भौगोलिक सीमाओं को लांघते हुए दोस्ताना संबंध कायम करने से नहीं हिचकते हैं। जनता की समृद्धि हर देश के एजेंडे में है। क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली राजग सरकार को सर्जिकल स्ट्राइक का कोई श्रेय दिया जाना चाहिए, क्या इससे अगले साल होने वाले पांच राज्यों में चुनाव में उन्हें इसका लाभ मिलेगा या क्या इस साहसिक कदम का मूल्यांकन करने, सराहना करने का काम इतिहास पर छोड़ देना चाहिए? 

ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिन्हें राजनेता अभी छोड़ ही दें तो बेहतर होगा। वैसे यह स्पष्ट है कि सर्जिकल स्ट्राइक का पाकिस्तान, राष्ट्रीय मूड, अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर प्रभाव या एक राजनीतिक पार्टी को इसका श्रेय मिलने की बात बहुत ही अस्थायी किस्म की है। यदि पाकिस्तान या अन्य किसी पड़ोसी देश पर स्थायी प्रभाव देखना है अथवा भारत के नागरिकों या फिर हमारे अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर इसके असर को महसूस करना है तो कुछ और भी करने की जरूरत है। 
और यह काम है आर्थिक विकास-समृद्धि और विश्व की बड़ी आर्थिक शक्तियों में भारत का ऊंचा स्थान बनाना। सभी राजनीतिक दलों को (यदि वे वाकई भारत और भारतीयों की सेवा करना चाहते हैं) तो अगले तीन दशकों तक भारत की जीडीपी की विकास दर को कम से कम चीन के बराबर या उससे अधिक रखने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यदि इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि 1894 से 1945 तक चीन पर जापान का शासन था। 

वह अपनी सुरक्षा सहित सभी जरूरतों के लिए रूस और दुनिया के दूसरे देशों पर निर्भर था। 1958 से 1962 के दौरान जब उसकी अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई थी तब करीब 450 लाख चीनी भुखमरी और कुपोषण का शिकार हो गए थे। आर्थिक सुधार के आरंभ में चीन की प्रति व्यक्ति आय भारत से कहीं कम थी, लेकिन अपनी राजनीतिक संकल्पशक्ति से चीन अभूतपूर्व तरीके से निर्धनता और निर्भरता की खाई से बाहर निकल आया। 

कभी वह विभिन्न मंचों और भूराजनीतिक स्थितियों में अलग-थलग रहता था, लेकिन आज वह विश्व राजनीति के केंद्र में है और प्राय: एजेंडा निर्धारित करता है। हर स्तर और हर दल के भारतीय राजनीतिक नेतृत्व को चौतरफा सुधार के काम में जुट जाना चाहिए, जो कि उच्च जीडीपी विकास का मार्ग प्रशस्त करेगा। गत दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोचीन से इसकी घोषणा की थी। प्राथमिक अर्थशास्त्र हमें बताता है कि उत्पादन के तीन कारक होते हैं-भूमि, श्रम और पूंजी। 
जहां तक पूंजी की बात है तो यह कारक इन दिनों स्वतंत्र हो गया है। 

भूमि और श्रम से जुड़ी नीतियां अभी भी कमोबेश 19वीं सदी जैसी ही हैं। इनमें समय के मुताबिक परिवर्तन की आवश्यकता है। केंद्र और राज्यों में चुनी हुई सरकारों को निर्णय लेने, आर्थिक विकास की नीतियों को क्रियान्वित करने के लिए सहायता, मदद उपलब्ध कराने के साथ ही उन्हें विधायिका और मतदाताओं के प्रति जवाबदेह बनाना होगा। भारत के मतदाता बुद्धिमान हैं। 

वे आर्थिक विकास में मदद करने के लिए राजनीतिक दलों को सराहते हैं। हर राजनीतिक पार्टी वंचितों के दुखों को कम करने की कसमें खाती है। उन्हें समझना होगा कि सिर्फ राष्ट्र की आर्थिक समृद्धि ही निर्धन-वंचित वर्ग को निर्धनता से बाहर निकाल सकती है। चीन ने यह करके दिखाया है। उसने बड़े पैमाने पर लोगों को समृद्ध बनाया है। 

भारत भी यह कर सकता है। यदि भारत विश्व अर्थव्यवस्था का सिरमौर बनता है तो वही सही मायने में सर्जिकल स्ट्राइक होगी और तभी हमारी संप्रभुता और सीमा का हर कोई आदर करेगा। एक बार जब यह सफलता हासिल हो जाएगी तब सभी राजनीतिक दल अपनी प्रगति का रिपोर्ट कार्ड बना सकते हैं और उन्हें लोगों के सामने प्रस्तुत कर सकते हैं। इससे लोग उनका गुणगान करेंगे ही, उन पर भरोसा भी करने लगेंगे। 

यदि ऐसा नहीं होता है तो इन पार्टियों का पतन होने से कोई रोक नहीं सकेगा। जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य जेबी कृपलानी आदि कई नेताओं को कभी कार्यपालिका की शक्ति नहीं मिली, फिर भी वे भारतीय लोकतंत्र के अमर स्तंभ बन गए हैं।



 

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