लोकपाल की नियुक्ति पर सवाल

Samachar Jagat | Tuesday, 29 Nov 2016 05:10:47 PM
Ombudsman questioned

सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल की नियुक्ति में देरी पर पिछले सप्ताह बुधवार को केंद्र सरकार को लताड़ लगाई। कोर्ट ने कहा कि उसे इस कानून को निरर्थक शब्द नहीं बनने देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी प्रकट करते हुए कहा कि सार्वजनिक जीवन में शुचिता के लिए बनी लोकपाल जैसी संस्था को निष्प्रभावी होने की अनुमति नहीं दी जा सकती। यह संस्था इस तरह से काम नहीं करेगी।

 कोर्ट ने कहा कि अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद बनाए गए लोकपाल कानून को सिर्फ इसलिए निष्प्रभावी नहीं होने देना चाहिए कि उसकी चयन समिति में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को शामिल करने के लिए संशोधन विधेयक पारित नहीं हो सका है। यह उल्लेखनीय है कि केंद्र ने दलील दी थी कि चयन समिति में विपक्ष के सबसे बड़े दल के नेता को शामिल करने के लिए विधेयक लंबित है। लोकपाल कानून बने तीन साल होने को आ रहे हैं।

 मगर अब तक केंद्र सरकार इस तर्क पर लोकपाल की नियुक्ति को टालती आ रही है कि कानून के मुताबिक चयन समिति में दोनों सदनों के विपक्ष के नेताओं का होना अनिवार्य है, जबकि वर्तमान लोकसभा में कोई नेता-विपक्ष नहीं है। कांग्रेस लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है, पर वह नेता-विपक्ष के लिए आवश्यक न्यूनतम सदस्य संख्या की शर्त पूरी नहीं करती। इसलिए सरकार ने लोकपाल की नियुक्ति के लिए समिति गठित करने में आने वाली समस्या के निराकरण के लिए कानून में संशोधन का विधेयक तैयार किया है, जो संसद में लंबित है। 

सुप्रीम कोर्ट ने पूछा है कि अगर लोकसभा में कोई नेता प्रतिपक्ष नहीं है, तो सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को चयन समिति में शामिल कर प्रक्रिया को क्यों नहीं आगे बढ़ाया जाता। इसका कोई संतोषजनक जवाब सरकार के पास नहीं है। असल में देखा जाए तो लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति सरकारों को रास नहीं आती, इसलिए वे इससे बचने का कोई न कोई रास्ता निकालती रही है।

 कई राज्यों ने तो लोकायुक्त संस्था का गठन ही नहीं किया है। गुजरात में जब नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री थे, करीब सात साल तक उन्होंने लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं होने दी थी। और भी कई राज्यों के उदाहरण दिए जा सकते हैं जो यही बताएंगे कि लोकायुक्त का पद खाली होने पर समय से भरा नहीं जाता। यही हाल सूचना आयोगों का भी है, नतीजन वहां लंबित आवेदनों और अपीलों का अंबार लगता जा रहा है। 

इससे सूचनाधिकारी कानून के ही बेमतलब होने का खतरा पैदा हो गया है। लोकपाल कानून में लोकपाल और लोकायुक्तों को कुछ ऐसे अधिकार दिए गए हैं, जिनसे सत्तापक्ष के नेताओं और नौकरशाहों को भी मुश्किलें पेश आ सकती है। हैरानी की बात है कि मोदी सरकार एक तरफ तो भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त रूख अपनाने का दावा कर रही है, मगर दूसरी ओर लोकपाल की नियुक्ति को लेकर उसका रवैया सवालों के घेरे में है।

 मजे की बात है कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा अण्णा आंदोलन के दौरान जोर शोर से यह जताती रही कि वह सख्त लोकपाल कानून के पक्ष में है। पर अब जब लोकपाल की नियुक्ति का जिम्मा भाजपा के पास है, लगता है वह इस मसले को ठंडे बस्ते में रखना चाहती है। विपक्ष में रहते हुए भाजपा सीबीआई को स्वायतता की भी दुहाई देती रही, मगर अब सीबीआई को स्वायत बनाने के अपने वादे को उसने बड़े सुविधाजनक ढंग से करीब-करीब भुला ही दिया है। लोकपाल कानून के मुताबिक लोकपाल को अधिकार है कि वह सीबीआई को निर्देश दे सके। अगर सचमुच मोदी सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने को लेकर गंभीर है तो जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों के आचरण को साफ सुथरा बनाना चाहती है तो उसे लोकपाल की नियुक्ति से क्यों गुरेज होना चाहिए।

 इस सरकार का आधा कार्यकाल समाप्त हो चुका है। सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव के मुताबिक अगर अब भी उसने सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को चयन समिति में शामिल कर लोकपाल की नियुक्ति की पहल नहीं कि तो भ्रष्टाचार से लड़ने के उसके दावे पर ही प्रश्न खड़ा होगा।
 



 

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