नोटबंदी से आर्थिक गतिविधियों के बुरी तरह से प्रभावित होने की आशंकाएं सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से जुड़े आंकड़े आने पर दूर हो गई। चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में जीडीपी की वृद्धि दर 7 प्रतिशत रही है, जबकि पूरे साल की वृद्धि का अग्रिम अनुमान भी 7.1 प्रतिशत पर कायम रहा। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने पिछले सप्ताह मंगलवार को तीसरी तिमाही और पूरे वर्ष के अग्रिम अनुमान से जुड़े आंकड़े जारी किए।
साथ ही पहली और दूसरी तिमाही के जीडीपी वृद्धि के संशोधित आंकड़े भी पेश किए, जिससे पहली तिमाही में वृद्धि दर बढक़र 7.2 फीसदी और दूसरी तिमाही में 7.4 फीसदी हो गई। ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि तीसरी तिमाही के बीच 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी के फैसले से अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र बुरी तरह से प्रभावित हुए होंगे। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के साथ अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन ने भारत की जीडीपी वृद्धि दर के अनुमान को घटाया था।
यूरोप के आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) ने चालू वित्त वर्ष में देश के आर्थिक विकास अनुमान को 7.4 फीसदी से कम कर 7.0 फीसदी करते हुए इसी दिन कहा कि अगले वित्त वर्ष में यह 7.3 प्रतिशत पर और इसके बाद वर्ष 2018-19 में यह 7.7 प्रतिशत रह सकती है। साथ ही ओईसीडी ने नोटबंदी का दीर्घकालिक लाभ होने का हवाला देते हुए भारत से आर्थिक एवं कर में जारी सुधारों को जारी रखने की सिफारिश की है। यहां यह बता दें कि जीडीपी तय अवधि में देश में उत्पादित माल और सेवाओं का आधिकारिक मूल्य है। इसे किसी देश के लोगों के जीवन स्तर और अर्थव्यवस्था की समृद्धि का सूचक माना जाता है।
जीडीपी वृद्धि दर नकारात्मक होना मंदी का संकेत है, इससे देश में उत्पादन घट जाता है और बेरोजगारी बढ़ जाती है। जीडीपी वृद्धि दर का आकलन दो तरीके से किया जाता है। पहला स्थित मूल्य पर और दूसरा मौजूदा मूल्य। स्थित मूल्य में जीडीपी दर और उत्पादन का मूल्य एक आधार वर्ष में उत्पादन की लागत के आधार पर तय होता है। मौजूदा मूल्य के तहत दर आंकने में उत्पादन की लागत के साथ महंगाई दर भी शामिल की जाती है। भारत में जीडीपी निर्धारण के तीन प्रमुख घटक कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र है। इनमें उत्पादन बढ़ने या घटने की औसत के आधार पर जीडीपी दर तय होती है। सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक देश की प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय चालू वित्त वर्ष में 10.2 प्रतिशत बढक़र एक लाख 3 हजार 818 रुपए रहने का अनुमान है।
वैश्विक शोध संस्थान ओईसीडी ने भारत की रेटिंग में सुधार की वकालत की है। उसने कहा है कि भारत के मामले में वैश्विक रेटिंग एजेंसियां जरूरत से ज्यादा सतर्कता बरत रही है। साथ ही कहा है कि पिछले 14 साल में भारत की रेटिंग में सुधार नहीं करके वह काफी रूढ़ीवादी रूख अपनाए हुए है। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) के महासचिव एंजल गुरिया ने कहा कि मेरा मानना है कि भारत बेहतर रेटिंग का हकदार है। उन्होंन कहा कि रेटिंग को बदलकर पहले तटस्थ और उसके बाद सकारात्मक किया जा सकता है।
जिस प्रकार के सुधार कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया जा रहा है, उस पर गौर किए बिना नहीं रहा जा सकता है। इसलिए यह होना चाहिए। यह पूछे जाने पर कि आखिर भारत की रेटिंग पिछले 14 साल में क्यों नहीं बदली, जबकि इन वर्षांे में वह गतिविधियों के मामले में सबसे अलग देश रहा है। गुरिया ने कहा कि मैं इस मामले में कुछ मुद्दों पर विचार करता हूं, पहला कि रेटिंग एजेंसियां सबसे पहले लिए गए कर्ज की गणना करती है। भारत निवेश के निचले पायदान पर है। उन्होंने आगे कहा कि रेटिंग एजेंसियों को भारत की साख बढ़ानी चाहिए और मुझे लगता है कि वे करेगी।
उनका कहना था कि रेटिंग एजेंसियां काफी सतर्कता बरत रही है क्योंकि वैश्विक आर्थिक संकट को देखते हुए वह इसे ठीक से नहीं समझ पाई है। एक ओर ओईसीडी के महासचिव एंजल गुरिया ने जहां भारत की रेटिंग में सुधार की वकालत की है, वहीं वैश्विक आर्थिक विश्लेषकों ने भारत सरकार के आंकड़ों पर सवाल उठाते हुए पूछा है, भारत के विकास आंकड़े ‘‘तथ्य है या कपोल कल्पना’’। आर्थिक विकास के आंकड़ों को आर्थिकी के जानकारों ने हैरान करने वाला बताया है। उनका कहना है कि ये आंकड़े वास्तविकता से मेल नहीं खाते हैं।
आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि इसमें शायद नोटबंदी के वास्तविक असर को शामिल नहीं किया गया और उसे छुपाया गया है। जिन अर्थशास्त्रियों ने इन आंकड़ों को पहेली बताया है उनमें सार्वजनिक बैंक एसबीआई के साथ-साथ वैश्विकी वित्तीय फर्म, बैंक ऑफ अमेरिका, मेरिल लिंच और नोमूरा जैसी दिग्गज वित्तीय कंपनियों के विश्लेषक शामिल है। इन विश्लेषकों का मानना है कि इस ऊंची विकास दर की मुख्य वजह साल भर पहले की आधार अवधि में ‘भारी कमी’ हो सकती है। इसके साथ ही अनेक कंपनियों ने अपनी नकदी को संभवत: बिक्री के रूप में दिखाया हो जबकि सरकारी आंकड़े शायद असंगठित क्षेत्र पर के आंकड़ों पर निर्भर है।
एसबीआई के मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्यकांति घोष ने कहा है कि सरकार की ओर से जारी तीसरी तिमाही के अनुमान बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि नोटबंदी के दो महीनों के दौरान अर्थव्यवस्था पर पड़ा असर इसमें दिखना चाहिए था। आम अनुभव यही है कि आठ नवंबर को घोषित हुई नोटबंदी का आर्थिक गतिविधियों पर बहुत बुरा असर हुआ। उपयोग घटा। मांग गिरी। उत्पादन गिरा। यह तमाम बातें सीएसओ के आंकड़ों में कहीं नहीं झलकती। हमारे देश में केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) का आंकड़ा ही मान्य है।
इसलिए इसे सहसा झुठलाया नहीं जा सकता है कि नोटबंदी से छोटे उद्योगों पर इसकी मार पड़ी थी। इनके उत्पादन एवं आपूर्ति दोनों प्रभावित हुए। पर्यटन चरमरा गया, होटलों में लोगों की कमी पड़ गई। रियल्टी सेक्टर तभी से सहमा हुआ है। कल कारखानों से श्रमिकों की छंटनी हुई। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने विकास दर में कमी का आकलन किया था। क्या वे सारे गलत थे। ऐसे में सीएसओ का आंकड़ा थोड़ा आश्चर्य में डालने वाला है। इस बारे में हम निश्चयात्मक तौर पर कुछ नहीं कह सकते क्योंकि हमारे पास इस आंकड़े को गलत साबित करने का तथ्यात्मक आधार नहीं है।