चुनावो मेें पैसों और शराब का प्रचलन निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान पकड़ी गई नकदी, शराब और अन्य मादक पदार्थो के आंकड़े हैरान करने वाले हैं। चुनाव आयोग के जांच दल ने अब तक अकेले उत्तर प्रदेश में करीब 116 करोड़ रुपए नगद, करीब 58 करोड़ रुपए की शराब और लगभग 8 करोड़ रुपए के मादक पदार्थ बरामद किए हैं। जाहिर है, पकड़ी गई नगदी, शराब और मादक पदार्थों के अलावा चोरी-छिपे इससे कई गुना अधिक नगदी, शराब और मादक पदार्थो का प्रवाह हुआ होगा।
पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में इस बार अवैध पैसे और मादक पदार्थो का प्रवाह तीन गुना से अधिक हुआ है। इसी तरह उत्तराखंड और पंजाब मेें भी चुनाव प्रचार के दौरान मतदाताओं ेके पैसे और नशीले पदार्थ बांटने का चलन पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में काफी बढ़ा है। खास बात यह है कि पंजाब में यह आंकड़ा पांच गुना से अधिक रहा। जबकि बिक्री पर रोक लगाना एक अहम चुनावी मुद्दा था।
विधान चुनावों की घोषणा से पहले जब केंद्र ने नोटबंदी का फैसला किया तो माना जा रहा था कि इस बार राजनीतिक दल अपने अनाप-शनाप खर्चों पर अंकुश लगाएंगे, मतदाताओं को रिझाने के लिए नगदी, शराब और दूसरे नशीले पदार्थ नहीं बांटेगे। मगर इस प्रवृति में बढ़ोतरी दर्ज होना न सिर्फ राजनीतिक दलों की दिढाई जाहिर करता है, बल्कि यह चुनाव आयोग के लिए भी चुनौती है। फिर यह सवाल भी है कि नोटबंदी और राजनीति चंदे पर अंकुश लगाने के बावजूद अवैध का प्रवाह रोक पाने में सरकार से कहां चूक हुई।
चुनाव पर खर्च को लेकर निर्वाचन आयोग के स्पष्ट दिशा-निर्देश है, पर शायद ही कोई उम्मीदवार तय सीमा का पालन करता है। इसकी बड़ी वजह यह भी है कि उम्मीदवार के चुनाव खर्च की सीमा तो तय है, पर राजनीतिक दलों का खर्च तय नहीं है। इसलिए उम्मीदवार अपना खर्च पार्टी के खाते से दिखाकर चुनाव आयोग के सवालों से बच निकलते हैं। इस प्रवृति पर अंकुश लगाने के मकसद से राजनीतिक दलों के नगदी चंदे की सीमा तय की गई।
यह भी सख्ती की गई कि अगर राजनीतिक दल अपने आय-व्यय का ब्योरा पेश नहीं करेगे, तो उन्हें आयकर से मिलने वाली छूट से वंचित होना पड़ सकता है। मगर इसका भी कोई असर नजर नहीं आ रहा। इसकी वजह साफ है कि चुनाव के दौरान पार्टियों और उम्मीदवारों को आर्थिक मदद करने वाले अपने कालेधन का इस्तेमाल कर सकते हैं। पर सवाल है कि कालेधन पर अंकुश लगाने के मकसद से सरकार ने जो सख्त कदम उठाए, उसका असर क्यों नहीं हो पाया है। किसी से यह बात छिपी नहीं है कि चुनाव के दौरान मतदाताओं को लुभाने के लिए उम्मीदवार पैसे, शराब, नशीले पदार्थ और साड़ी, कंबल जैसी चीजें बांटते हैं।
गरीब और निरपेक्ष मतदाता को पैसे देकर उससे अपने पक्ष में वोट डलवाया जाता है। हालांकि इस प्रवृति पर रोक लगाने के लिए चुनाव आयोग के जांच दल निगरानी रखते है, पर दूर-दराज के इलाकों में उनके लिए नजर रखना आसान काम नहीं है। इस तरह हर चुनाव में वोटों की खरीद-बिक्री से निष्पक्ष और साफ सुथरे चुनाव के उद्देश्य पर प्रश्न चिन्ह लगता है।
राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों से नियम कायदों के पालन की अपेक्षा करना बेमानी होता गया है, इसलिए चुनाव आयोग से ही उम्मीद की जा सकती है कि इस प्रवृति पर अंकुश लगाने के लिए वह कोई कठोर कदम उठाए। इसके लिए चुनाव आयोग को कठोर दंडात्मक अधिकार मिलने जरूरी है।