जयपुर के तार भगवान राम से जुड़े हैं

Samachar Jagat | Thursday, 03 Nov 2016 05:08:50 PM
Jaipur wires are connected to Lord Rama

जयपुर राजघराने के अतीत में अगर हम झांके तो हम यह कह सकते हैं कि जयपुर की स्थापना भगवान राम के वंशजों ने की थी। इम्पीरियल गजट ऑफ इंडिया के अनुसार हमें ज्ञात होता है कि यह घराना कछवाहा वंश से संबंधित है। इस गजट में इस दावे को तरजीह दी गई है कि कछवाहा वंश कुश की संतान है। 

कुश भगवान राम के दो पुत्रों लव और कुश में से एक थे। कुश के बाद का इनका इतिहास अस्पष्ट है लेकिन कहा जाता है कि उसके वंशज सोन नदी के किनारे रोहताश में जा बसे थे और तीसरी सदी के अंत तक वे ग्वालियर और गरवर में जा पहुंचे थे। उसके बाद आठ सौ साल तक उन्होंने ग्वालियर में ही राज किया। 

ग्वालियर में सबसे पहले राजा का इतिहास में उल्लेख 977 ई. में मिलता है जिसके अनुसार कछवाहा वंश का ब्रजदमन वहां का राजा था। जिसने ग्वालियर को कन्नौज के शासकों से आजाद कराकर अपना राज स्थापित किया था। ब्रजदमन की आठवीं पीढ़ी में तेजकरण हुआ जिसे दुल्हे राय के नाम से भी जाना गया। दुल्हे राय ने सन् 1128 के करीब ग्वालियर छोड़ दिया। उसने ग्वालियर क्यों छोड़ा इसके बारे में इतिहास में कई कहानियां प्रचलित है। 

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उसे उनके चाचा ने भगा दिया था तो दूसरे इतिहासकारों का कहना है कि दुल्हे राय दौसा के बड़गूजर राजा की बेटी से ब्याह करना चाहता था, इस कारण ग्वालियर का राजपाट अपने भाणजे (बहिन के बेटे) को सौंप कर आ गया। 

भाणजा या तो परिहरिया या परमार राजपूत था। दोनों में ये पैक्ट हुआ था कि ब्याह के बाद वह लौटा तो उसे उसका राज मिल जाएगा। लेकिन इन अलग-अलग कहानियों में विश्वास करने वाले इतिहासकारों में इस बात पर मतैक्य है कि दौसा के राजा के कोई संतान नहीं थी इस कारण दुल्हे राय को विवाह पश्चात अपने श्वसुर के उत्तराधिकारी के रूप में दौसा का राज मिल गया। इस तरह राजपुताने में कछवाहा वंश की शुरुआत सन् 1128 से मानी जा सकती है।

 सन् 1150 के करीब दुल्हे राय के वंशजों में से एक ने सुदावत मीणाओं से छीन कर आमेर को अपनी राजधानी बना लिया। इम्पीरियल गजट ऑफ इंडिया के अनुसार दुल्हे राय के चौथी अथवा पांचवीं पीढ़ी के वंशज पाजुन के बारे में उल्लेख मिलता है कि उसने अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान की बहिन से विवाह किया था। और जब 1192 में पृथ्वीराज चौहान मुहम्मद गौरी से पराजित हुआ तो वह भी चौहान के साथ ही था और युद्ध में मारा गया था। 

चौदहवीं सदी के अंत में आमेर का शासक उदयकरण बन गया था और तब पूरा इलाका जो शेखावटी कहलाता था, उसके अधीन आ गया था जाहिर है उस समय पूरे शेखावाटी में कछवाहा वंश का राज था। देश में जब मुगलों का आगमन हुआ तो आमेर भी उनके प्रभुत्व में आ गया था। आमेर में 1548 ई. से 1574 तक भारमल का शासन था और भारमल आमेर का पहला राजा था जो मुगल दरबार में पहुंचा था। 

हुमायुं ने उसे 5000 की मनसबदारी दी और भारमल ने अपनी बेटी को हुमायुं के बेटे अकबर से ब्याह दिया था। (इम्पीरियल गजट ऑफ इंडिया में यही उल्लेख है।) भारमल का बेटे भगवानदास ने सरवाल के युद्ध में अकबर की जान बचाई थी। इस कारण वह सम्राट अकबर का अच्छा दोस्त बन गया था। भगवानदास 5 हजार घुड़सवारों का कमांडर था और बाद में इसे पंजाब का गवर्नर बना दिया गया था। इम्पीरियल गजट में यह भी उल्लेख मिलता है कि भगवानदास ने अपनी बेटी का ब्याह सलीम से किया था जो बाद में जहांगीर के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा। 


भगवानदास के लेकिन कोई पुत्र नहीं था इसलिए उसने मानसिंह को गोद लिया। मानसिंह बहुत बहादुर था और उसने 1590 ई. से 1614 ई. तक राज किया। इसे अकबर महान ने सबसे ज्यादा 7000 घुड़सवारों की मनसबदारी दी। उसने उड़ीसा, बंगाल और असम में भी युद्ध लड़े और अलग-अलग अवधि में काबुल, बंगाल, बिहार और असम की सूबेदारी सम्हाली। दक्षिण का सूबेदार भी वह रहा। 

मानसिंह के बाद जयसिंह प्रथम ने गद्दी सम्हाली जो मिर्जा राज जयसिंह के नाम से मशहूर हुआ। औरंगजेब के कार्यकाल में दक्षिण में हुए युद्धों में उसके नाम का उल्लेख मिलता है। वह 6 हजार घुड़सवारों की फौज का कमांडर था और कहा जाता है कि उसने शिवाजी को भी एक बार पराजित किया था। लेकिन उसकी वीरता के बखानों से औरंगजेब मन ही मन जलता था और उसकी दक्षिण में रहस्यमय परिस्थितियों में मौत ने कई कहानियों को जन्म दिया।

 जिसमें एक यह थी कि उसे औरंगजेब ने ही जहर देकर मरवा दिया था। उसके बाद की पीढि़यों में जयसिंह द्वितीय हुए जो बिशनसिंह की संतान थे और  सवाई जयसिंह के नाम से विख्यात हुए। उन्हें यह उपाधि मुगल दरबार ने ही दी थी। सवाई जयसिंह ने 1699 में ग्यारह साल की उम्र में आमेर की गद्दी सम्हाली और 1743 ई. उनका निधन हुआ। इस दौरान उन्होंने जयपुर बसाया और इस तरह जयपुर के पहले शासक सवाई जयसिंह थे।



 
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