भारत के लिए सुनहरा मौका

Samachar Jagat | Tuesday, 06 Dec 2016 05:30:58 PM
Golden opportunity for India

इतिहास विरले ही किसी देश को अपना भविष्य सुरक्षित करने का सुनहरा अवसर प्रदान करता है। 20 जनवरी, 2017 को डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठ जाएंगे। बौद्धिक स्तर पर पाकिस्तानी आतंकवाद के बारे में ट्रंप और भारत की सोच एकसमान है। जाहिर है, डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के साथ ही भारत के पास अपनी पाकिस्तान नीति को सही दिशा देने के लिए एक सुनहरा मौका हाथ लग गया है। 

भारत ट्रंप प्रशासन को पाकिस्तान को एक आतंकवादी देश घोषित करने के लिए मना सकता है। 1990 के दशक के मध्य में तब के अमेरिकी राष्ट्रपति पाकिस्तान को एक आतंकवादी देश घोषित करने जा रहे थे, लेकिन तब भारत ने ऐसा करने से अपने कदम वापस खींच लिए थे। उम्मीद करें कि इस बार भारत वह गलती न दोहराए। अगर फिर वही गलती की जाती है तो यह मूर्खता की हद होगी। 

ऐसे में यह कहा जा सकता है कि आने वाले चार साल भारत की कूटनीति के लिए काफी चुनौतीपूर्ण होंगे। भारत में एक ऐसा वर्ग है (खासकर भहदूवादी संगठन) जो पाकिस्तानी आतंकवाद और भारत की अखंडता को लेकर भचतित रहता है। उनको मैं कहना चाहूंगा कि मौर्य काल के बाद से यानी पिछले 2000 सालों में यह पहली बार है जब भारत सैन्य दृष्टि से इतना मजबूत देश बना है, जो आज एक ही साथ पाकिस्तान और चीन से युद्ध करने की क्षमता रखता है। 

हालांकि युद्ध सिर्फ हथियारों के बल पर ही नहीं जीते जाते हैं। युद्ध राजनीतिक नेताओं के बौद्धिक निर्णयों द्वारा भी जीते और हारे जाते हैं। जीत हमेशा लड़ाई के मैदान में ही नहीं मिलती। कभी-कभी यह युद्ध समाप्त हो जाने के बाद भी हासिल की जाती है। अधिकतर भारतीयों का मानना है कि पाकिस्तान के खिलाफ 1947-48, 1965, 1971 और 1999 के कारगिल में हुए युद्धों में भारत की जीत हुई थी, लेकिन यह सच नहीं है।

 वास्तविकता यह है कि पाकिस्तान के खिलाफ लड़े सभी युद्ध हम हार गए। 1947-48 में यदि भारतीय नेतृत्व ने एक बेहतर निर्णय लिया होता तो आज हम पाकिस्तान के स्कर्दू के रास्ते यूरोप के देशों में सीधे कारोबार कर रहे होते। 1965 में भारत ने हाजीपीर दर्रे को पाकिस्तान को लौटा दिया। 1971 में भारत ने बिना कुछ हासिल किए 96000 पाकिस्तानी सैनिकों को वापस कर दिया। यह सही है कि इन सभी युद्धों में भारत की सेना को सफलता मिली थी, लेकिन हमने उससे कोई विजय हासिल नहीं की। 

सैन्य सफलता और विजय, दोनों अलग-अलग चीज हैं। हमारे राजनीतिक नेता इन सैन्य सफलताओं से बाद में कोई लाभ उठाने में विफल साबित हुए। सैन्य सफलता अपने आप में जीत नहीं होती। कुछ ऐसी ही कमजोरी का परिचय मनमोहन भसह के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान भी देखने को मिली। यह सिलसिला अभी भी जारी है। गत वर्ष दिसंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाहौर का दौरा कर आत्मसमर्पण कर दिया था।

 शायद इसलिए, क्योंकि अमेरिकी विदेश विभाग और दिल्ली स्थित पाकिस्तानी लॉबी ने हमारी विदेश नीति पर कब्जा कर लिया था। इस बौद्धिक विफलता की जड़ें बड़ी गहरी हैं। राष्ट्रपति बनने से पहले डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने विश्व के साथ भारत के अनुभवों को कुछ इन शब्दों में बयान किया था, ‘3000 सालों के हमारे इतिहास में पूरी दुनिया से लोग यहां आए और उन्होंने हम पर आक्रमण किया, हमारी जमीनों पर कब्जा किया, हमारे मन-मस्तिष्क को अपने अधीन कर लिया। सिकंदर से लेकर ग्रीक, तुर्क, मुगल, पुर्तगाली, ब्रिटिश, फ्रेंच, डच यहां आए और उन्होंने हमें लूटा, हमारी चीजों को हथिया लिया। फिर भी हमने ऐसा किसी दूसरे राष्ट्र के साथ नहीं किया।’ 

कलाम के शब्द हमें यह सोचने के लिए बाध्य करते हैं कि विदेशी ताकतों ने हम पर आक्रमण क्यों किया और हमने उनके आगे घुटने क्यों टेके और यह क्यों लगातार जारी है? 1000 से 1027 ईस्वी के दौरान मोहम्मद गजनी ने भारत के शहरों पर एक ही तरीके और रास्ते से 17 बार हमला किया, पर हर बार हम उसके आक्रमण का इंतजार करते रहे। हमने अपनी सीमाओं को पार कर उसको रोकने, शांत करने, खत्म करने का कोई प्रयास नहीं किया। 

एक सभ्यता के रूप में क्या हमने एक-दूसरे से आपस में लडऩा ही सीखा है, जैसे कि महाभारत में देखने को मिलता है, विदेशी हमलावरों से लडऩा नहीं सीखा है? क्या यही हमारी बहुलतावादी और सह-अस्तित्व की भावना है, जो हमें विदेशी ताकतों का सामना करने से रोकती या अयोग्य बनती है? हम आक्रमणकारियों को क्यों न्योता देते हैं? जाहिर है, यदि हम इन्हें रोकना चाहते हैं तो एकतरफा सहिष्णुता की भावना त्यागनी होगी।

 आज भारत भी तेजी से बदल रहा है। भारत मालदीव, श्रीलंका और पाकिस्तान के साथ युद्ध में सैन्य हस्तक्षेप कर चुका है। यदि भारत एक बड़ी ताकत के रूप में उभरना चाहता है तो इसे शांति की स्थापना से बढक़र कुछ करना होगा और अमेरिका का एक सहयोगी बने रहना होगा। चीन के उत्थान से जो हालात पैदा हुए हैं उसमें भारत को अमेरिका की जरूरत है और अमेरिका को भारत की जरूरत है। 

हाल के वर्षों में भारत-अमेरिका के संबंध लगातार आगे बढ़ते रहे हैं, भले ही वाभशगटन या नई दिल्ली में किसी की भी सरकार रही हो। दरअसल भारत-अमेरिका के रिश्तों की बुनियाद अमेरिकी सेना ने लिखी है। 1996 में अमेरिकी रक्षा विभाग ने एक दस्तावेज प्रस्तुत किया जिसे ज्वाइंट विजन 2010 कहा गया। उसे बाद में संशोधित कर विजन 2020 का नाम दे दिया गया। यह कहता है कि अमेरिका को अपनी रक्षा क्षमताओं को उन्नत करना चाहिए और अपने नए सहयोगियों को सैन्य आपूर्ति करनी चाहिए। 

इसमें अमेरिका ने इंडो-पैसेफिक नाम से एक नया टर्म प्रस्तुत किया। इस नए परिदृश्य में और्र ंहद महासागर में भारत के प्रभाव को खत्म करने की चीनी सेना की मंशा के दरम्यान ही वियतनाम, ऑस्ट्रेलिया, जापान, भसगापुर, दक्षिण कोरिया और दूसरे समान विचार वाले देशों के साथ संयुक्त और बहुस्तरीय सैन्य अभ्यास के जरिये भारत के संबंधों में मजबूती आई है। मुख्य रूप से हमारे क्षेत्र में नाटो जैसी एक सुरक्षा साझेदारी के लिए संरचना पूरी तरह तैयार हो गई है, लेकिन यहां विचार करने के लिए दो भबदु हैं। 



 

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