केंद्रीय उपभोक्ता, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्री राम विलास पासवान ने पिछले सप्ताह लोकसभा में कहा कि सरकार भ्रामक विज्ञापनों पर कड़ी सजा का प्रावधान वाला एक नया उपभोक्ता संरक्षण कानून लाएगी। पासवान ने कहा कि संसद की स्थाई समिति ने उपभोक्ता संरक्षण विधेयक 2015 के विभिन्न संशोधनों का सुझाव दिया था और सरकार उन्हें नए विधेयक में शामिल करेगी।
बड़ी संख्या में झूठे और भ्रामक विज्ञापन आने की बात स्वीकार करते हुए पासवान ने लोकसभा में कहा कि कंपनियों द्वारा भ्रामक दावे और विज्ञापनों से निपटने के लिए अनेक कानून है। उन्होंने बताया कि नए उपभोक्ता संरक्षण कानून पर काम हो रहा है और इस बारे में एक विधेयक मंत्रिमंडल में रख दिया गया है। इसमें भ्रामक विज्ञापनों से निपटने के लिए कड़े प्रावधान है।
भ्रामक विज्ञापनों से निपटने के लिए लंबे समय से सख्त नियम बनाने की बात तो होती रही है। पर अब तक इस पर कोई ठोस पहल नहीं हो सकी है। अब पासवान ने एक नया उपभोक्ता संरक्षण कानून लाने की बात कही है, जिसके तहत भ्रामक विज्ञापन देने वालों को सख्त सजा का प्रावधान होगा। इस पर शायद ही किसी को आपत्ति होगी कि कंपनी अपने उत्पाद की बिक्री बढ़ाने के लिए उसका प्रचार करती है।
लेकिन उसके बारे में लोगों को अगर गुमराह करने वाली बातें सच की शक्त में पेश की जाती है तो यह न सिर्फ विश्वास के प्रति धोखे का मामला है, बल्कि इससे उपभोक्ताओं को कई स्तर पर नुकसान भी हो सकता है। यह विडंबना है कि हमारे समाज में जागरूकता की व्यापक कमी के चलते ज्यादातर लोग वस्तुओं की उपयोगिता को विज्ञापनों में किए गए दावों के मुताबिक मान लेते हैं और उसकी हकीकत के बारे में पड़ताल नहीं करते।
जबकि किसी भी उपभोक्ता को यह अधिकार होना चाहिए कि वह उत्पाद के विज्ञापन में दर्शाई गई गुणवता की मांग करे और ऐसा न होने पर उसके खिलाफ शिकायत करे। मगर उपभोक्ता अधिकारों के प्रति उदासीनता का फायदा कंपनियां उठाती है। देश में उदारीकरण की नीति लागू किए जाने के बाद पिछले दो-ढ़ाई दशक में बाजार के आक्रामक प्रसार में ऐसी होड़ पैदा हुई है, जिसमें हर रास्ता अपनाकर मकसद बस उपभोक्ताओं से मुनाफा कमाना रह गया है।
तमाम ऐसी वस्तुएं जिनके विज्ञापनों में बढ़-चढक़र ऐसे दावे किए जाते हैं, जो सीधे लोगों के विवेक पर असर डालते हैं और वे दूसरे ज्यादा सही विकल्पों पर विचार करना छोड़ देते हैं। मुश्किल है कि विज्ञापनों में परोसे गए भ्रम को विश्वनीय बनाने के लिए जाने-माने खिलाडि़यों, फिल्मी कलाकारों और नामचीन हस्तियों का सहारा लिया जाता है। जबकि किसी वस्तु के बारे में किए गए झूठे दावों वाले विज्ञापन कुछ लोगों के लिए आर्थिक मुनाफे का जरिया बनते है, पर आम लोग उसके असर में आर्थिक, सामाजिक और मानसिक, हर स्तर पर नुकसान में रहते हैं।
विडंबना यह भी है कि वस्तुओं के विज्ञापन में किए गए दावों की वास्तविकता की जांच परख की न कोई कसौटी है, न इन पर कारगर तरीके से रोक लगाने के लिए कोई तंत्र। सरकारी तंत्र का हाल यह है कि करीब छह साल पहले केंद्र सरकार की ओर से इन पर नियंत्रण के लिए उपभोक्ता मामलों के विभाग को नियामक प्रणाली विकसित करने के दिशा-निर्देश दिए गए थे, ताकि अखबार, टीवी या एसएमएस के जरिए परोसे जाने वाले ऐसे विज्ञापनों पर रोक लगाई जा सके, जो किसी वस्तु के गुण-दोषों का ब्योरा न देकर भ्रमित करने वाली जानकारियां देते हैं।
लेकिन अगर इतने सालों बाद भी भ्रामक विज्ञापनों से निपटने के लिए कोई कारगर तंत्र नहीं है, तो समझा जा सकता है कि सरकारें अपनी ही पहल के दावों के प्रति कितनी गंभीर है। अब जबकि केंद्रीय उपभोक्ता, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्री रामविलास पासवान ने भ्रामक विज्ञापनों पर लगाम लगाने के लिए कड़ी सजा वाला कानून लाने की बात लोकसभा में कही है और इस तरह का कानून बनाकर मंत्रिमंडल के समक्ष रखने तक का दावा किया है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार अपने वादे पर खरा उतरेगी और भ्रामक विज्ञापनों के जरिए आम उपभोक्ता को गुमराह करने वाली कार्रवाई पर अंकुश लग सकेगा।