योग का रोग निवारण में योग

Samachar Jagat | Tuesday, 25 Apr 2017 09:20:06 AM
Yoga in the prevention of yoga

मस्तिष्क-मन-शरीर इन तीनों में असन्तुलन ही रोग है व सन्तुलन ही स्वास्थ्य है। स्वास्थ्य को अगर सही अर्थ में समझे तो स्व. में स्थित होना ही पूर्ण स्वास्थ्य है। पंचकोश विवेक के अनुसार हमारे मनोमय कोष में असन्तुलन जब होता है तो मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न हो, हमारे शारीरिक स्तर पर रोग उत्पन्न हो जाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा की दृष्टि से देखे तो रोग का मुख्य कारण शरीा में विजातीय द्रव्यों का संचय होना है, आज हमारे इस योग प्राकृतिक चिकित्सा के आधार को विश्व विज्ञान भी मानने लगा है। विज्ञान के अनुसार 95 diseoses are psychosomatic alments रोगों का मुख्य कारण है।

आज की इस भागदौड़-प्रदूषित व तनाव युक्त जीवन शैली में रोग मुक्त जीवन जीने के लिए हमें दैनिक जीवन में योग को अपनाना होगा अन्तमय कोष अर्थात शारीरिक स्तर पर स्वस्थ होने के लिए हमें प्राकृतिक चिकित्सा का सहारा लेते हुए आन्तरिक शुद्धिकरण करना होगा, शरीर से गन्दगी विजातीय द्रव्य निकालने के 13 मार्ग हैं मुख्य चार मार्ग मार्ग (1) नाक (NOST) से प्रश्वास,  चमड़ी से पसीने के रूप में, STOOL निष्कासन व  URIN मूत्र विसर्जन के द्वारा आन्तरिक शुद्धिकरण होता है और इन रास्तों के कस काम करने से विजातीय द्रव्य TOXINS जमा होकर रोग के रूप में  उभर कर आते हैं।

 भोजन के स्वादिष्ट होने में बनाने वाले के शुद्ध भाव के साथ-साथ सभी मसालों का समावेश और सन्तुलन उसमें स्वाद लाता है। उसी प्रकार सम्पूर्ण स्वास्थ्य के लिए हमें पंचकोशो का शुद्धिकरण करना होगा। अर्थात रोगोंं से बचने व लड़ने के लिए IAYA INTEGRETED APREECH OF YOGA THERAPY को अपनाते हुए सम्पूर्ण स्वास्थ्य हर कोश को स्वस्थ बनाना होगा।

प्राणमय कोश के आधार  BREATHING PATTEOM सुचारू व सुदृढ़ करता है प्राणिक स्तर पर रोग का कारण शरीर के किसी भी हिस्से अंग में ENERGY DEFICHENCY के कारण DISORDER होकर DISEASES हो जाती है हमें प्राणायाम से ENERGY को सन्तुलित करता है। योग की एक परिभाषा है ड्ढधद्दथ द्बप थ yoga is cestrel of involuntry movments through voluntry actires  प्रारम्भिक स्तर पर शरीर-मन-मस्तिष्क का आपसी जोड़ ही योग है। आज के दूषित वातावरण एवं जीवन के निरन्तर बढ़ते संघर्ष में मानव अपने स्वयं के प्रति इतना उदासीन हो गया है कि उसके लिए सामान्य जीवन जीना भी एक गंभीर समस्या बन गई है। संस्कारों को पुनर्जीवित करने का काम केवल योग व अध्यात्म मार्ग पर चलकर ही किया जा सकता है।

आहार निद्रा भयं मैथुन च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।
बुद्धिर्हि तेषामधिको विशेषो बुद्धिर्विहीना: पशुभि: समाना:।। (भर्तृहरि नीति शतकम)

आहार, निद्रा, भय, मैथुन की क्रियाएं पशुओं और मानवों में समान ही हैं, परन्तु मनुष्य की बुद्धि उसकी विवेक सामथ्र्य, उसके कार्यो में निहित उसकी विचार करने की शक्ति उसे पशु से पृथक करती है। स्वास्थ्य प्राप्ति के क्षेत्र में आज अनेक चिकित्सा पद्धतियां हमारे सामने हैं जो कि उपचार में लाभ की जगह असमंजस ही बढ़ाती हैं। ठीक उसी प्रकार योग के क्षेत्र में भी आज अनेक आकर्षक, लुभावनी व प्रचारक पद्धतियां सामने आ गई हैं। हम इनमें से किस पद्धति को अपनाएं यह एक गम्भीर प्रश्न है योग विद्या हमारे वेदों व उपनिषदों से निकली हुई हैं। 

तैत्तरीय उपनिषद में योग की विस्तारपूर्वक व्याख्या की गई जिसमें पंचकोष विवेक के आधार पर शरीर को देखा है। प्रत्येक कोश के शरीर में अपने अलग-अलग कार्य तथा उन कार्यो के अपने क्षेत्र हैं। हमारी योगिक पद्धति ऐसी होनी चाहिए जिसमें कि हम प्रत्येक कोश को अधिक सुदृढ़ व स्वस्थ बना सकें तथा सम्पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त कर सकें। आज उपनिषदों व वेदों की स्वास्थ्य के प्रति इस अवधारणा को ‘‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’’ भी मानने लगा है तथा उसने स्वास्थ्य की परिभाषा को नया रूप दे दिया है:

योग की अनेक पद्धतियां प्रचलन में है जो समाज में हर तरह के मनुष्य की आवश्यकता के अनुरूप व्यक्ति के रूपांतर का कार्य करती हैं। भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने योग के चार मार्गो को बताया है मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुरूप किसी भी एक मार्ग पर चलकर अपने ध्येय का प्राप्त कर सकता है। शरीर और मन पर ही मनुष्य जीवन की सारी क्रियाएं और आचार विचार निर्भर हैं लेकिन स्वास्थ्य के अभाव में शरीर व मन का अस्तित्व होते हुए भी उनमें कार्यशक्ति, भोग क्षमता और सुख प्राप्ति का सामथ्र्य न होने से व्यक्ति का जीवन अपूर्ण हो जाता है।

 शरीर और मन से स्वस्थ बने रहने तथा स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए  ‘आसन’ जिनका अभ्यास योग में किया जाता है बहुत उपयोगी हैं। योग की वेदोंं, उपनिषदोंं व कई ग्रन्थों में व्याख्या की गई है। सीधे अर्थो में योग का कार्य शरीर, मन, प्राण, बुद्धि और अध्यात्म इन सभी स्तरों पर व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास करना है। इस प्रकार योग व्यक्ति के सर्वतोमुखी विकास की एक समग्र प्रक्रिया है :
1. मांसपेशियोंं के स्तर पर पूरी तरह तनाव मुक्त स्थिति।
2. प्राणिक स्तर पर धीमा, मंथर व संतुलित श्वास-प्रश्वास।
3. मानसिक स्तर पर सृजन व संकल्प शक्ति का विकास।
4. बौद्धिक स्तर पर बुद्धि की प्रखरता व मन की शांति।
5. भावनात्मक स्तर पर योग जीवन के हर रूप में मनुष्य के भीतर निहित दिव्यता का प्रकाशन करता है।

योग को एक सूत्र में बांधने का श्रेय महर्षि पातंजलि को जाता है इन्होंने योग को एक सिस्टेमेटिक रूप से आठ अंगों में विभक्त किया है जिसे इस श्लोक में बताया गया है। 

‘‘यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान
समाध्योष्टसावङ नि।।
1. यम : आत्म संयम की वह साधना जिसमें स्वयं के लिए निषेध है।
2. नियम : वे आदेश जो प्रकृति प्रदत्त शुद्धिकरण दें।
3. आसन : शरीर की स्थिर व सुख प्राप्ति वाली मुद्राएं।
4. प्राणायाम : श्वास पर नियंत्रण व प्राण शक्ति का विस्तार।
5. प्रत्याहार : इन्द्रियों का उनके विषय से निग्रह।
6. धारणा : मन का केन्द्रीकरण।
7. ध्यान : विकेन्द्रीकरण।
8. समाधि : चरम चैतन्य अवस्था।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि योग व्यक्ति के तन और मन के विकारों का नाशकर उन्हें स्वस्थ, सुन्दर और स्वच्छ बनाता है लेकिन आवश्यकता आपसी सामंजस्य की भी है। हमें योग के साथ-साथ आयुर्वेद व प्राचीन विधाओं को भी साथ में प्रयोग करने से लाभ अधिक होता है। योग के विशाल व समग्र रूप में से मैं उसके केवल रोगोपचार में योगदान के पक्ष को ही प्रस्तुत कर रहा हूँ। विभिन्न रोगोंं में जीवन शैली परिवर्तन व योग से हम स्वास्थ्य लाभ कर सकते हैं। रोगोंं से सामना करने के लिए हमें केवल औषधियों पर ही निर्भर नहीं रहना है। 

हमें सम्पूर्णता से रोगोंं का निवारण करना है। रोग होने के अनेक कारण व स्थितियां बनती हैं इसी प्रकार सभी रोगोंं का क्षेत्र है। अगर गौर से देखा जाए तो रोग का मुख्य कारण तनाव व जीवन में अविचलित दिनचर्या व आहार पर नियंत्रण नहीं होता है। कारण किसी भी रोग होने का इतने में से एक या अनेक कारण मिलकर शरीर में कष्ट आता है।

 योग युक्ति तनाव मुक्ति के साथ करो नियमित योग और रहो निरोग के जीवन का अंग बनाना होगा, हम सदैव स्वस्थ व निरोगी रहें, रोग हमें सहज कभी छू भी न सके, इसके लिए लाजमी जरुरी है कि हम तन व मन से मजबूत बनें हमें हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को इतना मजबूत कर लेना है जिससे छोटे-मोटे तो क्या बड़े व कुख्यात रोगों को भी हम अपने पास फटकने भी न दें, हम योग का ही सहारा क्यों लें, क्योंकि इस mechnism में गड़बड़ जमी होती है जबकि हमारा  metablosirn disturb  हों योग ही एक मात्र साधन है जिससे हम अपने metablosien  को strang करते हुए इस mechnisirn को die current  सुचारू सुदृढ़ व सुव्यवस्थित कर सकते हैं।


 



 

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