दासी, फिर निराशा और फिर अवसाद। यह छोटी-सी भावना गहरा जाए तो जानलेवा हो जाती है। भारत जैसा खुशहाली में यकीन रखने वाला देश अवसाद के मामले में नंबर दो पर आ पहुंचा है। सचेत हो जाइए। समय रहते इससे छुटकारा पाना ही ठीक है। जितनी सतही यह समस्या लगती है, उसकी जड़ें उतनी ही गहरी बैठ जाती हैं। निराश ही तो है, कुछ दिन में अपने-आप मन बहल जाएगा। सब ठीक हो जाएगा।
हम ऐसा ही तो सोचते हैं, जब कुछ दिनों से घर-परिवार में हमें कोई चुप-चुप, अलसाया सा, चिड़चिड़ाया सा दिखता है। हम वक्त को डॉक्टर मान कर निश्चिंत हो जाते हैं। शायद हम भी नहीं जानते कि ऐसे में क्या करना चाहिए। पता ही नहीं होता कि वह व्यक्ति मानसिक तनाव की उस दहलीज पर है, जहां से तनाव निराशा और फिर अवसाद की जहरीली बेल में तब्दील हो सकता है।
फिर ये जहरीली बेल ना सिर्फ उस शिकार मन को खोखला कर देती है, बल्कि उसके तन पर भी असर करने लगती है। अगर इसे जड़ से न उखाड़ा जाए तो जानलेवा भी हो सकती है।
जीवन और रिश्ते हो जाते हैं बेहाल
* अगर अभिभावकों में से कोई भी अवसादग्रस्त है तो बच्चों को भी अवसाद घेर सकता है।
* अवसाद से करियर भी प्रभावित होता है। अवसादग्रस्त लोगों को बेरोजगारी और कम आय की समस्या की आशंका होती है।
* अवसादग्रस्त लोगों की एल्कोहल और ड्रग के आदि होने की आशंका बढ़ जाती है। डिप्रेशन के कई मरीजों में सिगरेट पीने की आदत भी पनप जाती है। निकोटिन पर निर्भरता बढ़ जाती है।
क्या हैं लक्षण
अवसादग्रस्त व्यक्ति में निराशा, चिड़चिड़ाहट, प्रसन्नता का अभाव, भूख और वजन का कम या ज्यादा हो जाना, ऊर्जापूर्ण न रहना, मन उखड़ा रहना, थकान, अनिद्रा या बहुत ज्यादा सोना, खुद के किसी काम ना आने की भावना का पनपना या फिर अपराधबोध, एकाग्र होकर काम न कर पाना और कभी-कभी मृत्यु या आत्महत्या जैसे विचार आना जैसे लक्षण आम तौर पर लगभग दो-तीन हफ्ते तक चलते हैं।
इन लक्षणों की पहचान में यह भी देखना जरूरी होता है कि कहीं ये किसी दवाई या किसी तात्कालिक दुख के कारण तो नहीं हैं। लेकिन हर हाल में लंबे समय तक ऐसे लक्षण हों तो मनोवैज्ञानिक परामर्श लेना उचित होगा। अध्ययनों की मानें तो घोर अवसाद के दौर बीस हफ्तों जितने लंबे भी हो सकते हैं। बच्चों में उदासी, चिड़चिड़ाहट, पसंद के कामों में अरुचि, सिर दर्द, अनिद्रा, थकान जैसे लक्षणों में यह अभिव्यक्त हो सकता है।
क्या होता है इलाज
डिप्रेशन के इलाज में कॉग्निटिव बिहेवियरल साइकोथेरेपी और गंभीर मामलों में दवाओं की भी जरूरत पड़ती है। मनोवैज्ञानिक और साइकियाट्रिस्ट इसके इलाज में अहम भूमिका निभाते हैं। इसका इलाज लंबी अवधि तक चल सकता है। यह मरीज की स्थिति पर निर्भर करता है।