राजस्थान की वेषभूषा एवं आभूषण    

Samachar Jagat | Monday, 09 Jan 2017 02:08:28 PM
Costumes and jewelery of Rajasthan

राजस्थान की बात करें तो राजस्थान सबसे पहले रंगीलो राजस्थान के रूप में सम्बोधित किया जाता है। जैसे हमारे देष भारत में विभिन्नताएं हैं। उसी तरह से राजस्थान में अलग-अलग रंग देखने को मिलते हैं। यहां परिधानों को शैलियों में वर्गीकृत किया गया है।  राजस्थान को सांस्कृतिक दृष्टि से अलग-अलग क्षैत्रों में बांटा गया है, जिन्हें अंचल कहा जाता हैं जैसे मेवाड़ी शैली मारवाड़ी शैली शेखावाटी शैली हाडौती़ शैली आदी।

हर शैली का अपना ही रंग-ढ़ग हैं। पहनावे को लेकर राजस्थान सीमित नहीं है। आज भी यहां के लोग अपने परम्परागत परिधानों में नजर आते हैं। ग्रामीण वर्ग के लोग हो या ष्षहरी क्षैत्र के लोग अपने यहां सबका अपना अलग परिधान हैं, जो भी पोषाक व्यक्ति पहनता है वो उसके क्षैत्र से प्रभावित होती हैं। उसका बोल-चाल चाल-चलन परिवेष उसे बड़ी सरलता से अभिव्यक्त करता हैं। ये अभिव्यक्ति अगर उसकी वेषभूषा से आ रही हैं तो वो उसकी वेषभूषा की अभिव्यक्ति कहलाएगी और इस प्रकार इसे वेषभूषा का गुण भी कह सकतें हैं और यही एक संस्कृति का गुण है। यानि एक स्थान विषेष से उत्पन्न अभिव्यक्ति।

यहां अभिव्यक्ति का कारक केवल स्थान हैं। हा तो स्थान विशेष यहां हम बात कर रहे है राजस्थान की धरती धोरा री राजस्थान को सांस्कृतिक रूप कई कई भागों में बांटा गया है।

राजपूताना कहे जाने वाले राजस्थान में राजपूती वेष की अपनी पहचान आज के दौर में भी कायम हैं। कुछ खास सम्प्रदाय वर्ग के लोग जैसे गढ़ीया लौहार का अपना खास पहनावा हैं।

कालबेलिया समुदाय के लोगों में महिलाएं काले रंग की ओढ़नी, कुर्ती और घाघरा पहनते है पुरूष कुर्ता धोती और सिर पर साफा बांधते हैं जिसे पगड़ी भी कहते हैं। पगड़ी का रंग काला हरा सफेद हो सकता है इसके अलावा चुनरीदार लाल पगड़ी भी अधिकतर पहनी जाती हैं। पगड़ी को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।

पुरूष कानों में कुण्डल, मुरकी पहनते है जो कि किसी धातु की बनी होती हैं जैसे सोना चांदी तांबा पीतल आदि का हो सकता हैं कानों में मुरकी पहनने का शौक कानों की शोभा बढ़ाने का पूरक होता है। पुरूष और महिलाएं दोनों गले में वर्गाकार आकार की मोटी धातु पहनते हैं जिसे हंसली बोला जाता है । सामान्यतया यह चांदी की बनी होती हैं।

पुरूष शरीर के उपर जो वस्त्र पहनते हैं उसे अंगरखा कहा जाता हैा यह चटकीले रंग का होता हैं जिसमें पीले और काले रंग के धब्बे होते हैं। इसमें कॉलर नहीं होता और बटन भी नहीं होते यह डोरियां से बांधा जाता हैं। यह गले से कमर तक आता हैं। इसके नीचे पुरूष सफेद रंग की धोती पहनते है जो पैर के टकने तक पहनी जाती है धोती एक सफेद रंग के कपड़े का टुकड़ा होता हैं जो एक से दो मीटर चैड़ा और आठ से दस मीटर लम्बा होता हैं। पुरूष पैरों में चमड़े से बनी जूतियां पहनते है जिन्हें मोर्चड़ी भी कहा जाता हैं। यह ज्यादातर काले और लाल रंग की होती हैं।

महिलाओं में राजपूती बेस ज्यादा प्रचलित है कुछ खास सम्प्रदाय की ग्रामिण महिलाएं शर्ट भी पहना करती है और उसके नीचे करीब आठ से दस मीटर फेर वाला घाघरा जोकि स्कर्ट का बड़ा रूप होता हैं। महिलाएं आभूूषण के रूप में कमर पर कमरबंध बांधती हैं महिलाएं पैरांे में पायल पहनती है गांवों की महिलाएं पैरों में कड़ी भी पहनती है जोकि किसी धातु की बनी होती हैं।

एक दृष्टि से देखा जाए तो राजस्थान में खुले और ढीले वस्त्र पहने जाते हैं इस का कारण मौसम भी हो सकता है क्योंकि यह शुष्क उष्ण कटिबंधीय प्रदेष हैं। कारण, यहां के साठ प्रतिषत इलाका रेगिस्तान हैं।

सिर पर पगड़ी पहनने के पीछे संस्कृति के साथ-साथ एक कारण यह भी हो सकता हैं कि यहां तापमान अधिक होता हैं । इस कारण सिर को तेज धूप से बचाने के लिए मोटे वस्त्र का प्रयोग किया गया और धीरे-धीरे यह प्रचलन में आ गया जो संस्कृति में ढल गया और जिसे अब हम पगड़ी(साफा) कहते हैं। जो आज सिर का ताज बन कर उनके सिर की शोभा बढ़ा रही हैं।

हाड़ौती क्षैत्र में महिलाएं जो ओढ़नी पहनती है उसे वहां लूगड़ी कहा जाता हैं। जिस पर गोटे का काम होता हैं और उसे सजाने के लिए उस पर फूल-पत्तीयों की डिजाइन बनाई जाती हैं। घाघरे पर भी गोटे का या जरी वाला काम किया जाता हैं। पीले हरे रंग की ओढ़नी सामान्यतया देखने को मिलती हैं।

ग्रामीण परिवेष के अलावा अगर शहरीकरण की बात करें तो अब महिलाएं साड़ी भी पहनती हैं। पुरूष पेंट-षर्ट पहनते हैं। नवयुवक-युवतियाँ जीन्स टी-षर्ट भी पहनने लगे है।  

ओढ़नीः- शरीर के नीचले हिस्से में घाधरा और उपर कुर्ती, कांचली पहनने के बाद स्त्रियाँ सिर पर ओढ़नी ओढ़ती हैं। फाल्गुन के महिने में फागणियां नामक आढ़नी ओढ़ी जाती है। जोकि होली का समय होता हैं।

पोमचाः- पोमचा ओढ़नी का ही एक रूप हैं इसमें पद्म या कमल की तरह के गोल-गोल आकृतियां बनी होती हैं जिसके कारण यह पोमचा कहलाता हैं। पीला पोमचा को बोचचाल की भाषा में ‘पीला’ कहा जाता हैं। पोमचा बच्चे के जन्म पर षिषु की मां के लिए मातृ पक्ष की और से लाया जाता हैं और प्रसूता को पहनाया जाता हैं।

लहरियाः- श्रावण के महिने में विषेष कर तीज के अवसर पर राजस्थान की स्त्रियां इसे बड़े उल्लास से पहनती हैं। इस माह में स्त्रियां झूले झूलती हैं।

जामाः- राजस्थान में शादी-विवाह या युद्ध जैसे विषेष अवसर पर जामा पहनने का रिवाज रहा हैं।

बुगतरी(बख्तर ):- ग्रामीणों द्वारा श्वेत रंग की पहने जाने वाली अंगरखी को बख्तरी कहते हैं।

अंगरखा (अंगरखी)ः- बदन पर पुरूष काले रंग का अंगवस्त्र पहनते हैं जिस पर सफेद धागे से कढ़ाई की जाती हैं।

चुगा या चोगाः- सम्पन्न वर्ग के लोगों द्वारा अंगरखी के उपर पहने जाने वाला वस्त्र चुगा या चोगा कहलाता हैं।

नान्दणा या नानड़ाः- आदिवासियों द्वारा प्रयोग में लाये जाने वाले परम्परागत वस्त्र जिनकी छपाई दाबू पद्धति से होती हैं।

घूघी:- ऊन से बना वस्त्र जो सर्दी के मौसम में पहना जाता हैं। मेंवाड़ में पगड़ी और मारवाड़ में साफा पहनने का रिवाज हैं।

आतमसुखः- अंगरखी और चुगे के उपर पहने जाने वाला वस्त्र, यह चुगे से बड़ा और रूईदार होता हैं।

पटका/कमरबंदः- जामा या अंगरखी के उपर कमरबंद या पटका बांधने की परम्परा रही हैं जिसमें तलवार या कटार रखी जाती हैं।

कटकीः- यह अविवाहित युवतियों और बालिकाओं की ओढ़नी हैं। जो साधारणतया लाल रंग की होती हैं।

लूगड़ा (अंगोछा साड़ीः- इसमें सफेद जमीन पर लाल बूटे छपे होते हैं। कपड़े के रंग को जमीन कहा जाता हैं। आदिवासी स्त्रियों द्वारा पहने जाने वाला यह घाघरा का ही एक रूप हैं।

तारा भांत की ओढ़नीः- यह आदिवासी स्त्रियों में बड़ी लोकप्रिय हैं। इसमें जमीन भूरी रंगत लिए लाल होती हैं। और किनारी का छोर काला षट्कोणीय आकृति तारों जैसा दिखता हैं।

ज्वार भांत की ओढ़नीः- ज्वार के दानों जैसी छोटी-छोटी बिन्दी वाली जमीन और बेल-बूटे वाले पल्लू की ओढ़नी।

लहर भांत की ओढ़नीः- इसमें ज्वार भांत जैसी बिन्दियों से लहरिया बना होता हैं और किनारा तथा पल्लू ज्वार भांत जैसा ही होता हैं।

केरी भांत की ओढ़नीः- इसकी किनारी व पल्लू में केरी तथा ज्वार भांत जैसी बिन्दियाँ होती है।

ठेपाड़ा/ढे़पाड़ाः- भीलों में पुरूष वर्ग द्वारा पहने जाने वाली तंग धोती।

पिरियाः- विवाह के अवसर पर भील दुल्हनें पीलें रंग का लहंगा धारण करती हैं।

सिंदूरीः- भीलों में महिला वर्ग द्वारा पहने जाने वाली लाल साड़ी।

खोयतू:- लंगोटिया भीलों में पुरूषों द्वारा कमर पर बांधी जाने वाली लंगोटी।

कछावूः- लंगोटिया भीलों की महिलाओं द्वारा स्त्रियों के घुटने तक पहने जाने वाला नीचा घाघरा।

रेनसाईः- लहंगे की छींट।

चीर, चारसो, दुकूलः- स्त्रियों की वेषभूषा।

कुर्ती/कांचलीः- शरीर के ऊपरी हिस्से में स्त्रियों द्वारा पहने जाने वाला वस्त्र।

ब्रीचेस (बिरजस)ः- ब्रिटिष प्रभाव के तहत् राजस्थान में ब्रीचेस का प्रचलन हुआ। जब ब्रिटिष पाॅलिटिकल एजेंट षिकार पर जाते थे तो वे एक चूड़ीदार पायजामेनुमा वस्त्र पहनते थे जो पैरों से घुटने तक तो टाइट होता था तथा घुटनों से कमर तक घेरदार (चैड़ा) होता था। यह षिकार की ड्रेस थी। मारवाड़ एवं मेवाड़ में राजपूत वर्ग के लोगों में इस ड्रेस का प्रचलन हैं।

पगड़ियाँः-

19वीं सदी में यहाँ दोरूखी रंगाई की तकनीक विकसित हुई। कच्चे (नकली जरी) और पक्के (असली जरी), चिल्ले (जरीदार पल्लू) वाली पगड़ियों के लिए अलवर जिला प्रसिद्ध रहा हैं।

आन-बान और शान की प्रतीक समझीय जाने वाली राजस्थान की पगड़ियों को विष्व धरोहर में शामिल किये जाने के प्रयास किये जा रहे हैं। यूनेस्को के इनटेंजिबल कल्चर हेरिटेज प्रोजेक्ट के तहत् केन्द्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने इसके लिए प्रस्ताव तैयार करने के निर्देष दिये हैं। यह जिम्मेदारी उदयपुर स्थित पष्चिमी क्षेत्र सांसकृतिक केन्द्र को सौंपी गई हैं।

पगड़ी के ऊपर सुनहरे या रूपहले काम की पछेड़ी बांधी जाती हैं।

छाबदार - मेवाड़ महाराणा के पगड़ी बांधने वाला व्यक्ति कहलाता था।

उदयषाही, अमरषाही, अरसीषाही, स्वरूपशाही - पगड़ियों के प्रकार हैं।

मेवाड़ी पगड़ी राज्य की सर्वाधिक प्रसिद्ध पगड़ी हैं।

चुडा़वतषाही, जसवंतषाही, भीमषाही, मांडपषाही, राठौड़ी, मानषाही, हमीरषाही, बखरमा - पगड़ियों के अन्य विविध प्रकार हैं।

मोरड़े की पगड़ी विवाह के अवसर पर पहनी जाती हैं। दषहरे पर भदील पगड़ी प्रयोग की जाती थी। पगड़ी को सजाने के लिए तुर्रें, सरपेच, बालाबंदी, धुगधुगी, शोसपेच, पछेवड़ी, फतेपेच आदि काम में लेते थे। चीरा और फेंटा उच्चवर्ग के लोग बाँधते हैं।

महत्वपूर्ण तथ्यः-

साळू -  सधवा स्त्रियों के ओढ़ने का सुंदर व कीमती वस्त्र।

साड़ियौ, साड़ौ - जाट, विष्नोई, कुमार आदि समुदाय में विवाह के अवसर पर वर पक्ष की ओर से बरी के साथ दिया जाने वाला मोटे कपड़े का लहंगा जो विवाहित लड़की शादी के बाद साधारण दिनों में पहनती हैं।

चिणोटियौ - पुत्र जन्मोत्सव पर पुत्र  की माता को ओढाया जाने वाला एक विषेष प्रकार का मांगलिक ओढना।

डौडी -जामे की तरह पहनने का एक वस्त्र , इसका प्रचलन मेवाड. में रहा हैं।

मांझौ - सुनहरी या रूपहरी जरी का एक वस्त्र , यह मेवाड़ के उन सरदारों की पगड़ियों पर बांधा जाता था जिनको महाराणा की इजाजत होती थी।

निषान्त - मनीगेमी आर्ट नामक जापानी कला के माहिर,  इन्होंने अब तक दस के 241 नोटों पर इस कला का प्रयोग किया हैं।  मनीगेमी आर्ट ऐसी कला हैं जिसमें बिना नोट काटे , नोट में छपी तस्वीर को साफा, हेट या कैप पहनाई जाती हैं।

अर्जन प्रजापति -पद्मश्री से सम्मानित कलाषिल्पी अर्जुन प्रजापति का जन्म जयपुर में हुआ। ये टेराकोटा, मार्बल, कांस्य, फाइबर ग्लास और प्लास्टर आॅफ पेरिस की मूर्ति बनाने की कला में सिद्धहस्त हैं। अर्जुन प्रजापति की एक कृति बणी-ठणी उनकी विषिष्ट पहचान है।

किषन शर्मा -महाराणा सज्जनसिंह अवार्ड से सम्मानित चित्तौड़गढ़ जिले की बेंगू तहसील के रायता गांव निवासी किषन शर्मा पारम्परिक चित्र शैली, लघु चित्र शैली, सूक्ष्म चित्रांकन एवं माॅडर्न  आर्ट के सिद्धहस्त कलाकार है।

आभूषणः-

फूलगूघर - शीष पर गूथा जाने वाला एक रजत(चांदी) का आभूषण।

सेहली - ललाट पर धारण किया जाने वाला स्त्रियों का आभूषण।

सेलड़ौ, गौफण - स्त्री के बालों की वेणी में गूंथा जाने वाला आभूषण।

रतनपेच - पगड़ी पर धारण करने का आभूषण।

मावटी - स्त्रियों के सिर की मांग का आभूषण।

बोर, बोरला(राखड़ी), तिलकमणी, सूवाभळकौ, सिणगारपटी, चूड़ामण, सरकयारौ, मेमंद, गेडी, काचर, तीबगट्टौ, मांगफूल, मैण, मोडियौ, मोरमींडली, थुंडी - सिर के आभूषण।

पचमणियौ, पटियौ, निंबोळी, निगोदरी, नक्कस, थाळौ, तगतगई, तखति, बाड़ली, बाड़लौ, बटण, बंगड़ी, हौदळ, हमेल, हांस, रूचक, पाट, खींवली, चंपककली/चंपाकली, छेड़ियौ, तेवटियौ, तेड़ियौ, तिमणियौ, तांतणियौ, गळपटियौ, खूंगाली - गले व कंठ के आभूषण।

ओगनियौ - स्त्रियों के कान के ऊपर की लोळ में पहने जाने वाली सोने या चांदी की एक लटकन, इसे पीपळपतियौ, पीपळपान्यौ भी कहा जाता हैं।

मादीकड़कम, झेलौ, पांसौ, माकड़ी, बूझली, बाळा, कुड़कली, गुदड़ौ, छैलकड़ी, संदोल, सुरगवाळी - कान के आभूषण।

वेड़लौ, झाळ, झूंटणौ, झूमणं, तड़कली, तुतुडकु, तडूकौ, डरगालियौ, डूरगली, डुरगंलौ, पत्तीसुरळिया, कोकरूं, ऐरंगपत्तौ, पीपळपान, ठोरियौ, खींटली - स्त्रियों के कान के आभूषण।

खींवण, बुलाक, वेण, लूंग, काँटा/काँटों, नथ, लटकन, वारी, चूनी, चोप - नाक के आभूषण।

चन्द्रहार - पांच-सात लड़ी वाला एक प्रकार का हार।

चंपू - दाँतों में सोने के पत्तर की खोल बनाकर भी चढ़ायी जाती हैं। कोई स्त्री दाँतों के बीच में सार  छिद्र बनाकर उसमें सोने की कील जड़वाती हैं जिसे चंपू कहा जाता है।

झालरा - सोने अथवा चांदी की लड़ों वाला आभूषण जिसमें घूघरियाँ लगी लटकती है।

पछेली, बाजूजोसण, बंद, बाहुसंगार, सूतड़ौ, चूड़, छैलकड़ी, टडौ, दुगड़ी, ख्ंाजरी, आरसि, कातरियौ - हाथ के आभूषण।

बहरखौ, बिजायक, अड़कणी, खांच - बाँह के आभूषण।

धांणापुणछी, दुड़ी, गजरी, कंकण, माठी, पुणची(पौंचा) - कलाई के आभूषण।

अणत -  भुजा पर बाँधने का ताम्राभूषण, चैदह गाँठों सूत का गंडा।

लाखीणी - दुल्हन के पहनने की लाख की चूड़ी।

पट्टाबींटी - पाणिग्रहण से पहले वर की और से वधू को पहनाई जाने वाली चाँदी की मुद्रिका।

बंगड़ीदार -  वह चूड़ी जिस पर सोने या चांदी के पत्तर का बन्द लगा हो।

आँवळा - स्त्रियों के पैर व हाथों में धारण करने वाला सोने या चांदी का आभूषण।

डंटकड़ौ - स्त्रियों की भुजा पर धारण किया जाने वाला एक आभूषण,  यह सोने या लाख का बना होता हैं।

पवित्री - ताँबा और चांदी के मिश्रण से बनी मुद्रिका।

डोडी - भुजा के चूूड़े के नीचे पहना जाने वाला आभूषण।

दामणा, हथपान, छड़ा, वींछिया, अंगुठी, बींठी, मूंदड़ी, कुड़क, नथड़ी या भँवरकड़ी - हाथ की अंगुली के आभूषण।

कंदोरा, जंजीर, तागड़ी, कर्धनी, वसन - कमर के आभूषण।

कणकती - कमर में पहने जाने वाली सोने अथवा चाँदी की झूलती श्रृंखलाओं की पट्टी जो लहंगंे से बाहर की ओर बाई ओर की जांघ पर लटकती रहती हैं। सोने-चाँदी की इस सांकळ को कन्दोरा भी कहते हैं।

सटका - लहंगंे के नेफे में अटकाकर लटकाया जाने वाला आभूषण, इसमें सोने/चाँदी के छल्ले या चाबियाँ लटकी रहती हैं।

पैंजणी, कड़ा, टणका, टोडरौ, आँवला, जीवी, तोड़ा, छड़/छड़ा, गोळ्या, लंगर, लछन, हिरनामैन, पायल/पायजेब, नूपुर, घुंघरू, झाँलर, नेवरी, बीछूड़ी, चुट्टी/चट्टी, झाँझरिया/झांझर्या - पाँव/पाँवों की अंगुलियों के आभूषण।

रमझोळ - पाँवों में घूँघरियों वाला आभूषण जिससे चलते समय छम-छम की ध्वनि निकलती हैं।

गोळ्या - पाँवों की अंगुलियों में पहने जाने वाली चाँदी की चैड़ी एवं सादी अंगूठियों को कहा जाता हैं।

फोलरी - ऐसी अंगूठियाँ जिन पर तारों से लच्छी या गुच्छी गूँथकर फूलों की आकृति बना दी जाती हैं।

मेख - स्त्री-पुरूष के दांत में जड़ी सोने की चूँप।

धांस - दांतों का आभूषण।

बंदळी, सटकौ, फूलझूमकौ, जावलियौ, झूबी, तीड़ीभळकौ - स्त्रियों के आभूषण।

लूंब - आभूषण में लटकाई जाने वाली छोटी लड़ी।

बीरबळी - स्वर्ण निर्मित गोल चक्राकार आभूषण।

चमकचूड़ी, चांदतारौ - एक प्रकार का आभूषण।

नवग्रही - ग्रहों के रूप में नौ नगों से युक्त एक आभूषण।

एकावळी, कड़तौड़ौ, गजरौ, नागदमनी, सांकळी, दसमुद्रिका, जेलड़, झब्बौ, झावी, टिकड़ौ, भळकौ, मणिमाल - अन्य आभूषण।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्यः-

गोल्या - चांदी की चैड़ी एवं सादी अंगुठियों को गोल्या कहते है।

टोटी - स्त्रियों के कान के नीचे के भाग में पहनने का एक आभूषण। इसे तोटी भी कहा जाता हैं। इसके पीछे डंडी(गरमाला) लगी होती हैं। झुमरवाली टोटियों को झूमर्या या एरंग कहते हैं।

भंवरियौ - कान और नाक का एक आभूषण।

बजरबंटी - स्त्रियों का एक आभूषण जिसे गले में पहना जाता हैं।

बंगड़ी - स्त्रियों के हाथ में पहनने का एक आभूषण।

पाटलौ - स्त्रियों की कलाई मे पहनने का साने का चैड़ा पट्टीनुमा आभूषण।

नेवर - स्त्रियों के पाँवों में पहने जाने वाला एक आभूषण।

नखालियौ - स्त्री के पाँव की अंगुली में पहना जाने वाला चाँदी का आभूषण।

टोडर - पुरूषों के पैरों में धारण करने का गोल स्वर्णाभूषण।

राजस्थान में स्त्रियाँ अमर सुहाग के रूप में बाजू मे ऊपर हाथी दाँत अथवा लाख का चूड़ा पहनती हैं।

जयपुर विष्व में पन्ने की सबसे बड़ी मण्डी हैं।

आभूषणों में नवरत्नों के अंतर्गत नीलम एंव माणक(नवरत्नों में सर्वश्रेष्ठ) को शामिल किया जाता हैं।

दुर्गेश वर्मा 



 
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