चैत्र मास के कृष्ण पक्ष में आने वाली सप्तमी तिथि को शीतला सप्तमी और अष्टमी तिथि को शीतला अष्टमी के नाम से जाना जाता है। ऋतु परिवर्तन के समय शीतला माता का व्रत और पूजन करने का विधान है। शीतला माता का सप्तमी एवं अष्टमी को पूजन करने से दाहज्वर, पीतज्वर, दुर्गंधयुक्त फोड़े, नेत्र के समस्त रोग तथा ऋतु परिवर्तन के कारण होने वाले रोग दूर होते हैं । कुछ लोग होली के पश्चात आने वाले प्रथम सोमवार, गुरुवार और शुक्रवार के दिन भी शीतला माता का पूजन करते हैं।
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शीतला माता की उपासना घातक व्याधि से मुक्ति के लिए होती है। ऐसी मान्यता है कि माता शीतला पूजन से प्रसन्न होकर बच्चों की रक्षा करती हैं, इस दिन व्रत करने के साथ ही शीतलाष्टक का पाठ किया जाता है और कथा सुनी जाती है। इस दिन गर्म पदार्थ नहीं खाए जाते हैं और न ही चूल्हा जलाया जाता है। इसे ‘बासौड़ा या बास्योड़ा ’ के नाम से भी जाना जाता है।
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माता शीतला का रूप :-
शीतला माता के दैविक स्वरूप का शास्त्रों में यह चित्रण है कि माता हाथ में झाड़ू रखती हैं, इससे वे सफाई की प्रेरणा देती हैं। माता के पास सूप भी रखा है, जिससे वे अनाज की सफाई एवं स्वच्छ भोजन करने की प्रेरणा देती हैं। ज्यादातर बीमारियां खराब भोजन से ही होती हैं। माता के एक हाथ में जल से भरा कलश है। माता मंगल कलश से जल छिड़क कर हमें निरोग और स्वस्थ काया प्रदान करती हैं। स्कन्द पुराण में माता शीतला का वाहन गर्दभ बताया गया है।
इस मंत्र से लें संकल्प :-
भय गेहे शीतला रोग जनितोपद्रव प्रशमनंपूर्वकापुर।
रोग्यैश्वर्यभिवृद्ध ये शीतलाष्टमी व्रतमहंकरिष्ये॥’
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