माँ परिवार की धुरी होती हैं, इसका तम्बाकू खाना-पीना सारे परिवार को प्रभावित करता है. जहाँ उसके द्वारा तम्बाकू उपभोग से और अंतत: तम्बाकू-जनित रोगों के उपचार पर किये खर्च से आर्थिक रूप से परिवार और गरीब होता ही है, उसके लिए बच्चों का तम्बाकू खाने-पीने से बचा पाना या वे ऐसा करने लग गये हों तो उन्हें छुड़ाने हेतु प्रेरित करना कठिन हो जा सकता है. माँ के लिए यह भी आवश्यक है कि वह घर में धूम्रपान न होने दें और सजगता से इस बात का ध्यान भी रखे कि कोई परिवारजन तम्बाकू खाने-पीने तो नहीं लगा है; और, यदि कोई ऐसा कर रहा है तो उससे तम्बाकू छुडवाने का हरसंभव प्रयास करें.
यदि माँ, बेटी, बहु, इत्यादि, तम्बाकू-मुक्त रहेगी तो समूचा समाज स्वस्थ, समृध और खुशहाल रहेगा. अतः इस जनस्वास्थ्य की दृष्टि से भी हर स्तर पर, हर स्थान और प्रत्येक के द्वारा इस महत्वपूर्ण सामाजिक पहलू सजगता से निर्वाह करना आवश्यक भी है और उचित व सामयिक भी.
अगर लोग ना चबायें तम्बाकू, तो..!?
स्वास्थ्य मंत्रालय ने सन् 2010 में रिपोर्ट किया कि जहाँ व्यस्क तम्बाकू उपभोगी भारतीयों में से ~13% महिलाएं हैं, राजस्थान में इनका प्रतिशत 12.7% है अर्थात 40 लाख से अधिक. साथ ही, 8% लडकियाँ भी तम्बाकू खाती-पीती हैं- धूम्रपान करने वाली 9% तो तम्बाकू चबाने वाली 85.5% हैं; और, बची 5.5% दोनों प्रकार से तम्बाकू उपभोगी हैं. यह तो हुई आंकड़ों की बात यह बतलाने के लिए कि समस्या कितनी बढ़ी है और भयावह भी.
क्यों खाती-पीती हैं महिलाएँ इसे? गाँवों में अधेड़ावस्था में खाली समय को बिताने तो शहरों में लड़कों-पुरुषों की देखा-देखी- विशेषकर कॉर्पोरेट जगत में उनसे बराबरी करने या उनका साथ पाने तो स्कूल-कॉलेज छात्राओं में इसे मात्र प्रयोग कर देखने हेतु या साहसिक दिखलाने हेतु. एक विशिष्ट समुदाय की महिलाओं में इसे पान में चबाने का चलन है तो गाँवों-शहरों में इसका दन्त-मंजन कर दांतों की सड़न के दर्द से राहत पाने का.
स्वास्थ्य-हानि की दृष्टि से महिलाएँ पुरुषों के समान प्रभावित होती ही हैं, जैसे केन्सर (मुँह, गर्भाशय के मुँह, खाने की नली, इत्यादि, के केन्सर), हार्ट अटैक, लकवा, अस्थमा-खाँसी, इत्यादि. इसके अतिरिक्त इनमें अधेड़ावस्था में जहाँ हड्डियों में स्खलन से फ्रैक्चर की दर बढ़ जाती है वहीँ प्रजनन-आयु में गर्भपात, जन्म से पहले गर्भाशय में ही मृत्यु, समयपूर्व डिलीवरी, जन्म होने पर शारीरिक वजन में कमी, स्तनपान कराने में अक्षमता, इत्यादि, समस्यों की दर बढ़ जाती है. यदि माँ धूम्रपायी है तो बच्चे के फेफड़ों का विकास कम होता है और इनमें कान और साँस के संक्रमणों की दर भी अधिक होती है.
यह अच्छा है कि प्रदेश में महिलाओं में तम्बाकू खाना-पीना, विशेष रूप से सार्वजानिक रूप से धूम्रपान करना सामाजिक रूप से अभी भी अस्वीकृत ही है. फिर जो इसे खाती-पीती हैं वो इसे चोरी-छुपे ही काम में लेती है. यह ही कारण है कि इनको इसे छुड़ा पाना भी एक बड़ी चुनौती हो जाती है, विशेषकर इनके द्वारा बीडी पीना- इनमें न केवल धूम्रपान छोडने की दर कम है परन्तु इसे वापस शुरू करने का अन्तराल भी छोटा है. एक और समस्या इनका शीघ्रता से इसका व्यसनी हो भी जाना है- राजस्थान का आंकड़ा नहीं है परन्तु भारत में जहाँ तम्बाकू-उपभोगी पुरुषों में व्यसन की दर 62.1% है, तम्बाकू-उपभोगी महिलाओं में मात्र 7% ही कम, याने 55.1%.
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कैसे हो महिलाओं की तम्बाकू से मुक्ति? इन्हें भी तम्बाकू खाने-पीने से होने वाली हानियों के प्रति सततता से सजग करते रहना और यदि वे इसे खा-पी रही हैं तो गोपनीयता बनाये रखते हुए इसे छुड़ाने हेतु सहायता देना आवश्यक है. प्रादेशिक नि:शुल्क चिकित्सा टेलीफोन सेवा न. 104 पर ये सवेरे 7 बजे से रात की 9 बजे तक अपनी गोपनीयता बनाये हुए अपनी सुविधानुसार परामर्श सेवा का लाभ उठा सकती हैं. और, अब तो राज्य के 33 में से 17 जिलों में इस हेतु राष्ट्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत प्रशिक्षित चिकित्सकों द्वारा उपचार का लाभ भी उठाया जा सकता है. यह नितांत आवश्यक है कि प्रादेशिक तम्बाकू नियंत्रण प्रकोष्ठ और राष्ट्रीय स्वस्थ्य मिशन को ग्राम पंचायतों, महिला-सहायता समूहों, गैर सरकारी संगठनों और मीडिया से सहभागिता कर, आशाओं और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं द्वारा इस हेतु घर-घर पहुँचे.
आइये, इस मदर्स डे पर हम सब प्रतिज्ञा लें कि अगला पूरा वर्ष इस मुद्दे पर कार्यरत हो प्रादेशिक स्तर पर माँओं को तम्बाकू-मुक्त जीवन हेतु सजग और सशक्त करेंगे.
लेखन-
डॉ. राकेश गुप्ता, अध्यक्ष, राजस्थान कैंसर फाउंडेशन और वैश्विक परामर्शदाता, गैर-संक्रामक रोग नियंत्रण (कैंसर और तम्बाकू).
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