तो समझो, भारत ने जीत लिया तम्बाकू नियंत्रण का खेल..
समूचे विश्व के 30 करोड़ से भी अधिक तम्बाकू चबाने वालों में से 25 करोड़ से भी अधिक (~89%) दक्षिण-पूर्वी एशिया में हैं. पैंतीस प्रतिशत व्यस्क तम्बाकू उपभोगी भारतीयों में से 26% तम्बाकू चबाते हैं. इस तरह एक और नकारात्मक तरीके से हम दुनिया में अग्रणी हैं. क्योंकि भारत और प्रदेश में भी, एक धूम्रपायी की अपेक्षा, तम्बाकू चबाने को अब तक भी एक सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है, अतः यह उचित और सामयिक है कि इस लेख के माध्यम से आमजन इसकी भ्रांतियों, हानियों और नियंत्रण की चुनौतियों के साथ-साथ इससे मुक्ति का मार्ग भी जाने.
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राजस्थान में दोनों तरह की तम्बाकू खाने-पीने वालों को सम्मिलित करते हुए कुल ~19% व्यस्क राजस्थानी तम्बाकू चबाते हैं- ~29% व्यस्क पुरुष और 8% से अधिक व्यस्क महिलाएँ. इनमें से मात्र 8% वर्तमान के उपभोगी ही इसे सफलता से छोड़ पाते हैं, याने 92% इसमें असफल रहते हैं. और जो इसे छोड़ भी देते हैं, उनमें से ~14% ही इसे तीन या उससे अधिक महीनों के लिए छोड़े रह पाते हैं.
हालाँकि इसका मुख्य कारण इस सामाजिक धारणा की दु:खद अनुपस्थिति है कि “तम्बाकू खाना-पीना एक रोग है और इसे खाने-पीने वाला एक रोगी है”, मोटे तौर पर इसके 50% से अधिक उपभोगियों द्वारा नाबालिग अवस्था में उपभोग प्रारंभ करना, ~68% उपभोगियों में इसकी व्यसनशीलता के चलते 60% से अधिक में इसे अगले एक वर्ष में भी छोड़ने की जागरूकता की कमी के साथ-साथ अधिकाँश चिकित्साकर्मियों में इसे छुडवा पाने के हुनर का अभाव, अतिरिक्त प्रमुख कारण हैं.
तम्बाकू चबाने की हानियाँ तकनीकी स्तर पर और आंकड़ों के आधार पर धूम्रपान से आंशिक रूप से कम अवश्य हैं (रिस्क गुणांक- चबाने वाली तम्बाकू: धूम्रपायी तम्बाकू 1.3:1.7) परन्तु इसमें 30 से अधिक केन्सरकारक रसायन होते हैं जोकि प्रमुखता से मुँह के कैंसर के अलावा नाक, गले, खाने व सांस की नलीयों, पैंक्रियास ग्रंथि और लीवर के केन्सर के कारक जाने गए हैं (भारतवर्ष में 50% से अधिक मुँह के केन्सर तम्बाकू चबाने से होते हैं).
इसके अतिरिक्त तम्बाकू चबाने से मुँह की झिल्ली और दांतों व मसूड़ों के कई रोग, मधुमेह, घातक हृदयाघात और पक्षघात भी हो जाते हैं. महिलाओं द्वारा, विशेषकर प्रजनन अवस्था में इसका उपभोग, पेट में पल रहे बच्चे की मृत्यु, गर्भपात, समय से पूर्व प्रजनन या जन्म के समय उसके कम वजनी होने का कारण जाना गया है. महिलायें इसके उपभोग से बाँझपन और पुरुष नपुसंकता/बाँझपन से भी पीड़ित हो सकते हैं.
साथ ही, इससे उत्पन्न निर्भरता और व्यसन मानसिक विषाद, पारिवारिक कलह और हर दिन का खर्च तो बनाये ही रखते हैं, अंतत: रोगावस्था में होने वाले खर्चों, उससे जुडी पारिवारिक कठिनाईयों-खर्च और असामयिक मृत्यु तम्बाकू चबाने वालों व उनके परिवारों का जीवन और दूभर कर देती है.
जहाँ इससे उत्पन्न व्यसनशीलता की चुनौतियाँ (निर्भरता, प्रतिकार लक्षण और पुनः उपभोग प्रारंभ करने की प्रवृति) धूम्रपान के समान ही होती हैं, यदि कोई दोनों तरह की तम्बाकू खाने-पीने लगे तो उसमें व्यसनशीलता की अधिकता बढ़ने के साथ सफलता से छोड़ पाने की दर कम हो जाती है. अतः इसे छोड़ने हेतु जहाँ व्यक्तिगत- और/या टेलीफोनिक- परामर्श की उपयोगिता जानी गयी है, औषधियों की उपयोगिता और प्रभाविकता लघु-अवधि हेतु और प्रतिकार लक्षणों की तीव्रता कम करने हेतु ही निर्देशित है. क्योंकि धूम्रपान की अपेक्षा चबाने वाली तम्बाकू को छोड़ना कठिन माना जाता है, इस हेतु सामाजिक-, संस्थानिक- और मीडिया- सहभागिता उपयोगी मानी गयी है.
अतः आमजन में इसके दुष्प्रभावों और इसे छोड़े जाने के लाभों की निरंतर जागरूकता बनाने और इसे सर्वत्र छोड़ पाने की सुविधायें बढाने के साथ भारतवर्ष और प्रादेशिक परिपेक्ष्य में लोकस्थानों, लोकवाह्नों और कार्यस्थलों को उनकी विशिष्ट तम्बाकू-मुक्त पालिसी के द्वारा सहभागी सहमती और सामंजस्य से तम्बाकू-मुक्त किया जा पाना एक उपयोगी तरीका हो सकता है. हालाँकि अब तक ऐसे स्थानों की संख्या, केंद्र और राज्य की तम्बाकू-मुक्त स्कूलों की नीति के अतिरिक्त सीमित ही है, इनसे प्राप्त परिणामों के आधार पर समाज में इनकी बहुलता लाभकारी मानी जा सकती है.
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इसके अलावा केंद्र और प्रादेशिक सरकारें उपलब्ध कानून के नियमों में चबाने वाली तम्बाकू को प्रभावी रूप से नियंत्रित करने के लिए कुछ नीतिगत सुधार, अतिरिक्त नियम अथवा/और विकल्प शीघ्रता से लाये; और, इनका उल्लंघन करने वालों की दण्ड-सीमा में भी खासी बढोतरी करे. एक और आवश्यकता इसे बेचने हेतु पैकेजिंग में बदलाव की है. इसे बजाये पाउचों में बेचने के कम-से-कम 100 ग्राम की मात्रा में टिन के डिब्बों में ही बेचा जाये ताकि ये ग्रामीणों, गरीबों और युवा की पंहुच से दूर हो सके. साथ ही इस पर टैक्स में अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार प्रभावी बढोतरी किये जाने, इसके छद्म विज्ञापनों पर पूरी-पूरी रोक के साथ इसके अनियंत्रित कॉटेज-इंडस्ट्री उत्पाद को पूरी तरह समाप्त किया जाना अत्यंत आवश्यक है.
तम्बाकू कम्पनियों द्वारा हर कुछ माह में नयी ब्रांडों को लाने बिना स्वास्थ्य मंत्रालय की प्रयोगशाला की जांच-रिपोर्ट और अनुशंसा पर भी पूरी रोक होनी चाहिए. इन सभी उपायों का शीघ्रातिशीघ्र एक साथ लागू किया जाना ही हमारे प्रदेश और देश को चबाने वाली तम्बाकू से होने वाली जनस्वास्थ्य-रूपी मानविक- और आर्थिक- हानियों से मुक्ति दिला सकेगा.
लेखन-
डॉ. राकेश गुप्ता, अध्यक्ष, राजस्थान कैंसर फाउंडेशन और वैश्विक परामर्शदाता, गैर-संक्रामक रोग नियंत्रण (कैंसर और तम्बाकू).
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