अमीरों के कारण बढ़ रहा है सिजेरियन का चलन: रिपोर्ट

Samachar Jagat | Sunday, 26 Feb 2017 11:07:08 AM
cesarean trend growing Due to the rich report

नई दिल्ली। अमीर वर्ग की महिलाओं के प्रसव पीड़ा तथा उससे जुड़ी अन्य दिक्कतों से बचने और निजी अस्पतालों द्वारा पैसा कमाने के लिए सिजेरियन कराने का दबाव डालने के कारण देश में ऐसे मामले बढ़ रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मेडिकल चिकित्सा जर्नल ‘लान्सेट’ की मातृत्व स्वास्थ्य पर जारी ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत के अमीर परिवार प्रसव के लिए सिजेरियन (ऑपरेशन से प्रसव) को प्राथमिकता देते हैं जिसकी वजह से 21 वर्ष में 2014 तक इस वर्ग में सिजेरियन के मामले औसतन 10 प्रतिशत से बढक़र 30 फीसदी पर पहुंच गए हैं और देश में ऐसे मामलों का औसत 10 फीसदी से बढक़र 18 प्रतिशत हो गया है जबकि निम्न आय वर्ग में ऐसे मामले अभी भी पांच प्रतिशत तक सीमित हैं।

केन्द्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट 20।5-16 में भी 1992 से 2015 के दौरान ऐसे मामलों के 18 प्रतिशत पर पहुंचने की बात कही गई है। लान्सेट की रिपोर्ट कहती है कि ऐसा देखने में आया हेै कि अमीर वर्ग की महिलाएं प्रसव पीड़ा ज्यादा देर झेलने या इससे जुड़े जोखिम उठाने को तैयार नहीं होतीं इसलिए न होने के बावजूद सिजेरियन के विकल्प को प्राथमिकता देती हैं।

इसके अलावा निजी अस्पताल भी पैसा कमाने के लिए जरूरत न होते हुए भी सिजेरियन करने का दबाव डालते हैं। इन कारणों से स्वास्थ्य सेवाओं के जरूरी संसाधन, इन चीजों में जाया हो जाते हैं जबकि इनका दूसरी जगह इस्तेमाल हो सकता था। इसका परिणाम यह होता है कि गरीब जरूरी स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित हो जाते हैं।

रिपोर्ट के अनुसार देश ही नहीं बल्कि दुनिया में भी बेवजह सिजेरियन का चलन बढ़ रहा है। वर्ष 2010 में उच्च और मध्यम आय वर्ग वाले देशों में 35 लाख से 57 लाख सिजेरियन के ऐसे मामले हुए जिनकी आवश्यकता नहीं थी जबकि गरीब मुल्कों में इस दौरान ऐसे 10 से 35 लाख प्रसव के मामले हुए, जिनमें सिजेरियन की जरूरत थी लेकिन उन्हें यह सुविधा नहीं दी जा सकी।  

केन्द्रीय महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने सिजेरियन से प्रसव के मामलों पर अंकुश लगाने के लिए सरकार को सुझाव भेजा है। उन्होंने सिजेरियन से प्रसव को निजी अस्पतालों और डाक्टरों का गोरखधंधा बताते हुए कहा है कि इस पर रोक तभी लगेगी, जब ऐसे अस्पतालों और डाक्टरों के लिए इसके कारणों का खुलासा करना अनिवार्य कर दिया जाए।

लान्सेट की रिपोर्ट में दिए गए राज्यवार आंकड़े भी यह बताते हैं कि सरकारी अस्पतालों और चिकित्सा केन्द्रों की तुलना में निजी क्लीनिकों और अस्पतालों में जहां अमीर लोगों का आना जाना है, सिजेरियन से प्रसव के मामले ज्यादा होते हैं।

त्रिपुरा के निजी स्वास्थ्य केन्द्रों में ऐसे मामलों की संख्या 74 फीसदी है जबकि सरकारी अस्पतालों में यह 18 फीसदी है। इसी तरह पश्चिम बंगाल में यह क्रमश: 70.9 प्रतिशत और 18.8 प्रतिशत है। निजी स्वास्थ्य केन्द्रों में सिजेरियन के सबसे कम मामले राजस्थान में हैं, जहां यह 23.2 प्रतिशत है जबकि बिहार में सरकारी अस्पतालों में सिजेरियन के मामले सबसे कम 2.6 प्रतिशत हैं।

दूसरी ओर तेलगांना में निजी और सरकारी दोनों प्रकार के स्वास्थ्य केन्द्रों में यह आंकड़ा क्रमश: 75 और 40.6 प्रतिशत है।
‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण चार‘2015-16 रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार भी सिजेरियन के मामलों में देश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों तथा अमीर और गरीब के बीच में काफी असमानता दिखाई देती है।

रिपोर्ट के अनुसार त्रिपुरा में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे मामलों का प्रतिशत क्रमश 87.1 और 57.6 है। तेलगांना में ऐसे मामले सबसे ज्यादा 58 प्रतिशत हैं । दक्षिणी तमिलनाडु में 2005-06 में सिजेरियन का प्रतिशत जहां 20.3 था जबकि 2015-16 में यह बढक़र 34.1प्रतिशत पर पहुंच गया।

गोवा में इस अवधि में इनका प्रतिशत 31.4 से बढक़र 25.7 पर पहुंच गया है जबकि मणिपुर में भी पिछले दस साल में यह 9 प्रतिशत से 21.1 प्रतिशत तथा असम और ओडिशा में यह क्रमश 5.3 प्रतिशत से बढक़र 13.4 प्रतिशत और 5.1 प्रतिशत से बढक़र13.8 प्रतिशत पर पहुंच गया है।  

लान्सेट की रिपोर्ट कहती है कि सिजेरियन के मामले सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में बढ़ रहे हैं। इसके पीछे सामाजिक और सांस्कृतिक की बजाय आर्थिक कारण ज्यादा हैं। इसलिए गरीब देशों की तुलना में मध्यम और उच्च आय वर्ग वाले देशों में इसका चलन लगातार बढ़ता जा रहा है। गरीब मुल्कों में सिजेरियन दर जहां 10 प्रतिशत पर सीमित है, वहीं मध्यम और उच्च आय वर्ग वाले देशेां में यह 40 से 60 फीसदी तक पहुंच चुकी है। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय मानकों के अनुसार यदि सिजेरियन से प्रसव के मामले कुल आबादी का दस फीसदी रहते हैं तो ऐसे में प्रसव के दौरान मां और बच्चे दोनों में से किसी के भी मरने का खतरा कम रहता है लेकिन यदि ऐसे मामले कुल आबादी के 10 फीसदी की सीमा से ज्यादा हो जाएं तो फिर इसमें खतरे की गुंजाइश बढ़ जाती है। इससे मां और बच्चे दोनों को गंभीर संक्रमण का खतरा भी हो जाता है।



 

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