नरेंद्र बंसी भारद्वाज: 23 मार्च का दिन भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। इस दिन देश के सच्चा और निडर सपूत भगत सिंह को अंग्रेजों ने फांसी दे दी थी। क्रांतिकारी भगत सिंह की शहादत दिवस को देश शहीद दिवस के रूप में मनाता है।
आज से ठिक 86 वर्ष पहले आज ही के दिन यानि 23 मार्च, 1931 शाम के 7:30 बजे अंग्रेजी हुकूमत ने छल से भगत सिंह,राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी थी। अंग्रेजों ने भगत सिंह को तो मार दिया लेकिन आजादी की अलख करोड़ों हिन्दुस्तानियों के दिलों में जगा गए।
आज हम इन अमर शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए इनके जीवन के कुछ अनसुने पहलुओं को उजागर करने जा रहे हैं जिनके बारे में बहुत ही कम लोग जानते हैं।
शहीदे आज़म भगत सिंह:
सरदार किशन सिंह और विद्यावती कौर के घर एक बहुमुखी प्रतिभाशाली बालक का जन्म हुआ, यही बालक आगे चल कर शहीद-ए-आज़म भगतसिंह कहलाये। भगतसिंह का नाम भगतसिंह कैसे पड़ा इसके पीछे भी एक कहानी है जो आज हम आपको बताने जा रहें है तो आइये जानतें है यह कहानी...
शहीद-ए-आज़म भगतसिंह के परिवार में वतन परस्ती कूट-कूट कर भरी हुई थी। उनके पिता सरदार किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह भी स्वतन्त्रता सेनानी थे। 28 सितंबर, 1907 के दिन जब भगत सिंह का जन्म हुआ तो उसी दिन उनके पिता और चाचा जेल से रिहा हो कर घर आए थे। घर में एक नन्हा सा सदस्य आने से घर में ख़ुशी का माहौल था।
जब भगत के पिता और चाचा घर आए तो भगत की दादी जय कौर ने कहा "ए मुंडा बड़ा ही भाग वाला है।" पिता और चाचा ने अपनी माँ की यह बात सुनी तो निर्णय लिया कि इस बच्चे का नाम भाग या इस से मिलता जुलता रखेंगे। परिवार में आम सहमति के बाद इस बच्चे का नाम भगत सिंह रखा गया।
इसी भगत सिंह ने आगे चल कर मात्र 23 साल की ज़िन्दगी जी कर एक ऐसा स्वर्णिम इतिहास लिख दिखाया जो आज भी हर भारतीय को देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत कर देता है।
शिवराम हरिनारायण राजगुरु:
24 अगस्त, 1908 को खेड़ा पुणे (महाराष्ट्र) में पण्डित हरिनारायण राजगुरु और पार्वती देवी के घर इस महान क्रांतिकारी और अमर बलिदानी का जन्म हुआ। शिवराम हरिनारायण अपने नाम के पीछे राजगुरु लिखते थे। यह कोई उपनाम नहीं है बल्कि यह एक उपाधि है।
इनके पिता पण्डित हरिनारायण राजगुरु, पण्डित कचेश्वर की सातवीं पीढ़ी में जन्मे थे। इनका उपनाम ब्रह्मे था। यह प्रकांड ज्ञानी पण्डित थे। एक बार जब महाराष्ट्र में भयंकर अकाल पड़ा तो पण्डित कचेश्वर ने इंद्र देव को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ किया। लगातार 2 दिनों तक घोर यज्ञ करने के बाद तीसरे दिन सुबह बहुत तेज़ बारिश शुरू हुई। जो कि बिना रुके लगभग एक सप्ताह तक चलती रही। इससे पण्डित कचेश्वर की ख्याति पूरे मराठा रियासत में फैल गई।
जब इसकी सूचना शाहू जी महाराज तक पहुंची तो वह भी इनकी मंत्र शक्ति के प्रशंसक हो गए। इस समय मराठा सम्राज्य में शाहू जी महाराज और तारा बाई के बीच राज गद्दी को लेकर टकराव चल रहा था। इसमें शाहू जी महाराज की स्थिति कमजोर थी। क्योंकि मराठा सरदार ताराबाई की सहायता कर रहे थे।
इसी घोर विकट परिस्थिति में शाहू जी महाराज को पण्डित कचेश्वर एक आशा की किरण लगे। इसी के चलते शाहू जी महाराज इनसे मिलने चाकण गाँव पहुंचे और शाहू जी महाराज ने अपने राज के खिलाफ हो रहे षडयन्त्रों से अवगत करवाते हुए उनसे आशीर्वाद माँगा। पण्डित कचेश्वर ने आशीर्वाद देते हुए युद्ध में इनके जीतने की घोषणा की।
जिसके बाद शाहू जी महाराज की अंतिम युद्ध में जीत हुई। शाहू जी ने इस जीत का श्रेय पण्डित कचेश्वर को दिया और उन्हें अपना गुरु मानते हुए राजगुरु की उपाधि दी। तभी से इनके वंशज अपने नाम के पीछे राजगुरु लगाने लगे।
सुखदेव थापर:
इनका जन्म पंजाब के लुधियाना जिले में 15 मई, 1907 में रामलाल और रल्ली देवी के घर हुआ था। इनके जन्म से 3 महीने ही इनके पिता का निधन हो गया था। इसलिए इनके लालन पोषण में इनके ताऊ अचिंतराम ने इनकी माता को पूर्ण सहयोग दिया।
सुखदेव को इनके ताऊ व ताई ने अपने बेटे की तरह पाला पोसा। यह शहीद-ए-आज़म भगतसिंह के परम मित्र थे। क्योंकि भगत सिंह और सुखदेव ने लाहौर नेशनल कॉलेज से एक साथ शिक्षा ली थी।
सुखदेव ने लाला लाजपत राय की मौत का बदल लेने के लिए अंग्रेज़ पुलिस अधिकारी साण्डर्स की हत्या की योजना रची थी। जिसे 17 दिसम्बर, 1928 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने अंजाम दिया था। इन्होंने महात्मा गाँधी द्वारा क्रांतिकारी गतिविधियों को नाकरे जाने के फलस्वरूप अंग्रेजी में गाँधी जी को एक खुला पत्र लिखा था जो कि तत्कालीन समय में बहुत ही चर्चाओं में रहा और युवा वर्ग में काफी लोकप्रिय भी हुआ।
यह एक संयोग ही है कि यह तीनों अमर शहीद 1 साल(1907-1908) के भीतर ही पैदा हुए और 23 मार्च, 1931 को एक दिन एक साथ ही शहीद हो गए। इनकी इस शहादत को भारत का हर एक बच्चा आज तक भी नहीं भूल पाया है और आनी वाली कई सदियों तक नहीं भूल सकेगा। भारत माता के इन अनमोल रत्नों की शहादत को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है।